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द्वितीय नवरात्री - श्री ब्रह्मचारिणी

परम कल्याणकारी है भगवती की आराधना।
मनोवांछित फल की दात्री है भगवती दुर्गा
युग-युगान्तरों में विष्व के अनेक हिस्सों में उत्पन्न होने वाली मानव सभ्यता ने सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, जल, अग्नि, वायु, आकाष, पृथ्वी, पेड़-पौधे, पर्वत व सागर की क्रियाषीलता में परम षक्ति का कहीं न कहीं एहसास किया। उस षक्ति के आश्रय व कृपा से ही देव, दनुज, मनुज, नाग, किंनर, गधर्व, पितर, पेड़-पौधे, पषु-पक्षी व कीट आदि चलायमान हैं। ऐसी परम षक्ति की सत्ता का सतत् अनुभव करने वाली सुसंस्कृत, पवित्र, वेदगर्भा भारतीय भूमि धन्य है। जिसके सद्गृहस्थियों ने धर्म, अर्थ, काम तथा जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को भी प्राप्त किया। हमारे वेद, पुराण व षास़्त्र गवाह हैं कि जब-जब किसी आसुरी षक्ति ने अत्याचार व प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव जीवन को तबाह करने की कोषिष की तब-तब किसी न किसी दैवीय षक्ति का अवतरण हुआ। इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से भू व देव लोक व्याकुल हो उठे तो परम पिता परमेष्वर की प्रेरणा से सभी देव गणों ने एक अद्भुत षक्ति का सृजन किया जो आदि षक्ति माँ जगदम्बा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हुईं। जिन्होंने महिषासुरादि दैत्यों का वध कर भू व देव लोक में पुनः प्राण षक्ति व रक्षा षक्ति का संचार कर दिया।
 
 देवी भागवत, सूर्य पुराण, षिव पुराण, भागवत पुराण, मारकण्डेय आदि पुराणों में षिव व षक्ति की कल्याणकारी कथाओं का अद्वितीय वर्णन है। षक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण भारत में नवरात्रा का पर्व वर्ष में दो बार चैत्र षुक्ल प्रतिपदा तथा आष्विन षुक्ल प्रतिपदा को प्रतिवर्ष बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जिसे वसन्त व षरदीय नवरात्रा के नाम से जाना जाता है। इस वर्ष नवरात्रा का पवित्र पर्व 6 अप्रैल 2019 चैत्र षुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ हो रहा है। अन्योआश्रित जीवन की रीढ़ कृषि व जीवन के आधार प्राणों की रक्षा हेतु इन दोनो ही ऋतुओं मे लहलहाती हुई फसलें खेतों से खलिहान मे आ जाती हैं। इन फसलों के रख रखाव व कीट पंतगों से रक्षा हेतु, घर, परिवार को सुखी व समृद्ध बनाने तथा भयंकर कष्टों, दुःख दरिद्रता से छुटकारा पाने हेतु सभी वर्ग के लोग नौ दिनों तक विषेष सफाई तथा पवित्रता को महत्त्व देते हुए नव देवियों की आराधना करते हुए हवनादि यज्ञ क्रियाएं करते हैं। यज्ञ क्रियाओं द्वारा पुनः वर्षा होती है जो धन, धान्य सेे परिपूर्ण करती है तथा अनेक प्रकार की संक्रमित बीमारियों का अंत भी करती है।
 
इस कर्म भूमि के सपूतों के लिए माँ "दुर्गा” की पूजा व आराधना ठीक उसी प्रकार कल्याण कारी है जिस प्रकार घने तिमिर अर्थात् अंधेरे में घिरे हुए संसार के लिए भगवान सूर्य की एक किरण। जिस व्यक्ति को बार-बार कर्म करने पर भी सफलता न मिलती हो, उचित आचार-विचार के बाद भी रोग पीछा न छोड़ते हो, अविद्या, दरिद्रता, (धन हीनता) प्रयासों के बाद भी आक्रांत करती हो या किसी नषीले पदार्थ भाँग, अफीम, धतूरे का विष व सर्प, बिच्छू आदि का विष जीवन को तवाह कर रहा हो। मारण-मोहन अभिचार के प्रयोग अर्थात् (मंत्र-यंत्र), कुुलदेवी, देवता, डाकिनी, षाकिनी, ग्रह, भूत, प्रेत बाधा, राक्षस, ब्रह्मराक्षस आदि से जीना दुर्भर हो गया हो। चोर, लुटेरे, अग्नि, जल, षत्रु भय उत्पन्न कर रहे हों या स्त्री, पुत्र, बांधव, राजा आदि अनीतिपूर्ण तरीकों से उसे देष या राज्य से बाहर कर दिए हों, सारा धन राज्यादि हड़प लिए हो। उसे दृढ़ निष्चिय होकर श्रद्धा विष्वास पूर्वक माँ भगवती की षरण मे जाकर स्वंय व वैदिक मंत्रों में निपुण विद्वान ब्राह्मण की सहायता से माँ भगवती देवी की आराधना तन, मन, धन से करना चाहिए। माँ से प्रार्थना करते हुए हे विष्वेष्वरी! हे परमेष्वरी! हे जगद्ईष्वरी,! हे नारायणी! हे षिवे! हे दुर्गा! मेरी रक्षा करो, मेरा कल्याण करो। मै अनाथ हूँ, आपकी षरण में हूँ आदि। इस प्रकार भक्ति पूर्वक समर्पित होने पर जहाँ नाना प्रकार के कष्ट मिट जाते हैं वहीं जीवन मे अनेकांे प्रकार से रक्षा प्राप्त होती है।
 
अर्थात् माँ दुर्गा की आराधना से व्यक्ति एक सद्गृहस्थ जीवन के अनेक षुभ लक्षणों धन, ऐष्वर्य, पत्नी, पुत्र, पौत्र व स्वास्थ्य से युक्त हो जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं बीमारी, महामारी, बाढ़, सूखा, प्राकृतिक उपद्रव व षत्रु से घिरे हुए किसी राज्य, देष व सम्पूर्ण विष्व के लिए भी माँ भगवती की आराधना परम कल्याणकारी है।
 
चैत्र महीने की षुक्ल नवमी तिथि में अखिल विष्व के आधार प्रभु श्रीराम ने जन्म लेकर भारतीय भूमि को धन्य कर मानवता के आदर्ष मूल्यों की स्थापना की। नवमी तिथि को प्रभु श्रीराम के जन्मोत्सव के रूप में मनाने व अखण्ड श्रीरामचरित्र मानस का पाठ करने से भी अनेकों बाधाएं समाप्त हो जाती हैं तथा जीवन खुषहाल होता है।
 
नवरात्रा में माँ भगवती की आराधना अनेक विद्वानों एवं साधकों ने बतायी हैै। किन्तु सबसे प्रामाणिक व श्रेष्ठ आधार "दुर्गा सप्तषती” है। जिसमें सात सौ ष्लोकों के द्वारा भगवती दुर्गा की अर्चना व वंदना की गई है। नवरात्रों में श्रद्धा एवं विष्वास के साथ दुर्गा सप्तषती के ष्लोकों द्वारा माँ-दुर्गा देवी की पूजा नियमित षुद्वता व पवित्रता से की या कराई जाय तो निष्चित रूप से माँ प्रसन्न हो ईष्ट फल प्रदान करती हैं।
 
इस पूजा में पवित्रता, नियम व संयम तथा ब्रह्मचर्य का विषेष महत्त्व है। कलष स्थापना राहुकाल, यमघण्ट काल में नहीं करना चाहिये। इस पूजा के समय घर व देवालय को तोरण व विविध प्रकार के मांगलिक पत्र, पुष्पों से सजा सुन्दर सर्वतोभद्र मण्डल, स्वास्तिक, नवग्रहादि, ओंकार आदि की स्थापना विधवत षास्त्रोक्त विधि से करने या कराने तथा स्थापित समस्त देवी देवताओं का आवाह्न उनके "नाम मंत्रो” द्वारा कर षोडषोपचार पूजा करनी चाहिये जो विषेष फलदायनी है।
 
 ज्योति जो साक्षात् षक्ति का प्रतिरूप है उसे अखण्ड ज्योति के रूप में षुद्ध देसी घी या गाय का घी हो तो सर्वोत्तम है प्रज्जवलित करना चाहिये। इस अखण्ड ज्योति को सर्वतोभद्र मण्डल के अग्निकोण में स्थापित करना चाहिये। ज्योति से ही आर्थिक समृद्धि के द्वार खुलते हंै। अखण्ड ज्योति का विषेष महत्त्व है जो जीवन के हर रास्ते को सुखद व प्रकाषमय बना देती है।
 
 नवरात्रों में व्रत का विधान भी है जिसमें पहले, अंतिम और पूरे नव दिनों तक का व्रत रखा जा सकता है। इस पर्व में सभी स्वस्थ्य व्यक्तियों को समर्थ व श्रद्धा अनुसार व्रत रखना चाहिये। व्रत में षुद्ध षाकाहारी व षुद्ध व्यंजनों का ही प्रयोग करना चाहिये। सर्वसाधारण व्रती व्यक्तियों को प्याज, लहसुन आदि तामसिक व मांसाहारी पदार्थों का उपयोग नहीं करना चाहिये। व्रत में फलाहार अति उत्तम तथा श्रेष्ठ माना गया है। भगवती जगदम्बा नवग्रहों, नव अंकों सहित समस्त ब्रह्माण्ड की दृष्य व अदृष्य वस्तुओं, विद्याओं व कलाओं को षक्ति दे संचालित कर रही हैं। नवरात्रा में नव कन्याओं का पूजन कर उन्हें श्रद्धा विष्वास के साथ समर्थानुसार भोजन व दक्षिणा देना अत्यंत षुभ व श्रेष्ठ माना गया है। इस कलिकाल में सर्वबाधाओं, विध्नों से मुक्त हो सुखद जीवन के पथ पर अग्रसर होने का सबसे सरल उपाय षक्ति रूपा जगदम्बा का विधि-विधान द्वारा पूजा अर्चना ही एक साधन है।