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वट सावित्री व्रत on 03 Jun 2019 (Monday)

सुख व सौभाग्य वर्धक है वट सावित्री व्रत

सौभाग्य विजय व्रत है, वटसावित्री
सावित्री से हारे यमराज

इस वसुमती (धरा) की गोद में ऐसे रत्नरूपी नर, नारियों ने जन्म लिया जो इसके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी तरू को अपनी विलक्षण प्रतिभा से सींच रहें है। वटसावित्री व्रत में प्रसंगवष ऐसी ही कर्मनिष्ट, अटल, सुदृढ़प्रतिज्ञ, सत्यनिष्ट, धर्मवती पवित्र पंुज नारी सती सावित्री की कथा आती है। जिसके तपबल व दिव्य तेज से यम दूत घबराते थे। विधि के विधान को सिद्ध करने हेतु साक्षात मृत्युरूपी भगवान यमराज उसके धर्मपति के प्राण पख्ेारू लेने के लिए जैसे ही वहाँ पहुँचे तो श्रद्धाभाव से उन्हीं के पीछे चल पड़ी इसी बीच सावित्री व मृत्यु के देवता यमराज के मध्य अनेक संवाद हुए। परिणामतः अंतःकरण की पवित्र भावना और धर्मनिष्ठा से मृत्यु के देवता यमराज भी प्रसन्न होकर वरदान माँगने के लिए कहा। जिसमें उसने सौभाग्य, पुत्र, दीर्घायु, सास-ससुर की नेत्र ज्योति, राज्य व भाई जैसे अनेकों वरदान प्राप्त किए। फलस्वरूप सावित्री के सौभाग्य(पति) सत्यवान के प्राण यमराज को छोड़ने के लिए विवष होना पड़ा और सावित्री की पवित्र भावनाओं के आगे हार मान कर मृत्यु की जगह अनेक वरदान पुत्र, धन, सौभाग्य, दीर्घायु आदि देना पड़ा।
इस तपोभूमि की नारियों ने दाम्पत्य व सौभाग्य रक्षा की अखिल विष्व में विजय पताका फहरा रखी है। चाहे वह प्रत्यक्ष व वाह्य आक्रमणकारी हो जिनके छक्के भारतीय वीरांगनाओं ने छुड़ा दिये या फिर परोक्ष तथा विधि का विधान सिद्ध करने वाले स्वयं काल रूप यमराज ही क्यों न हों, उन्हें भी इस तपोभूमि में आकर सावित्री जैसी नारियों कीे सच्ची, पवित्र, धर्मनिष्ठा के आगे झुकना पड़ा।

वट सावित्री का व्रत जो कि गृहस्थ जीवन के मुख्य आधार पति-पत्नी को दीर्घायु, पुत्र, सौभाग्य, धन समृद्धि से भरता है, अपने आपमें बड़ा उत्तम व पवित्र है। इस व्रत को ज्येष्ठ अमा और ज्येष्ठ पूर्णिमा को भारत में अलग-अलग परम्परा के अनुसार किया जाता है।ं यह व्रत चतुदर्षी विद्ध अमा या पूर्णिमा के दिन ही किया जाता है। वटसावित्री व्रत पूर्णिमा/ अमा से पहले त्रयोदषी से लेकर कुल तीन दिन तक करने का भी विधान है। वट (बरगद) अटल योगी की तरह धूप, आंधी, तूफान अनेक प्राकृतिक आपदाओं के बीच अडिग, नित्य, विषाल अविचलित रह प्रलय काल में भी अपने अस्तित्व को नहीं खोता। इसी प्रकार इस व्रत का पुण्य प्रभाव भी दुःख, दुर्भाग्य को नष्ट कर, वैवाहिक जीवन में सुख सौभाग्य को बढ़ाता है। इस व्रत में सावित्री की विजय से उत्साहित हो समस्त नारियां सौभाग्य की इच्छा से वट सावित्री का व्रत करती हैं। व्रत से पहले स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त होकर समर्थ के अनुसार मिट्टी, सोने या चाँदी की ब्रह्मा सहित सावित्री की प्रतिमा बनाकर बाँस के बने पात्र में स्थापित करके लाल रंग के वस्त्र से उसे आच्छादित करे। फिर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से विविध प्रकार पूजन अर्चन करे। कद्दू, नारियल, तुरई, खजूर, कैथ, अनार, जामुन, नारंगी, अखरोट, कटहल, गुड़, लवण, जीरा, सप्तधान्य आदि पदार्थ बाँस के पात्र में रखकर सावित्री देवी को अर्पित कर दे। रात्रि के समय जागरण कर गीत, वाद्य नृत्य आदि का उत्सव करे। व्रत की सफलता व उत्तम फल प्राप्ति हेतु वस्त्राभूषण व फलादि ब्राह्मणों को दान देने का विधान भी है।

 ज्योतिषीय दृष्टि से यह व्रत अधिक महत्त्वपूर्ण है। जिसके प्रभाव से व्यक्ति की कुण्डली में ग्रहारिष्ट, तथा वैधव्य योग जिन स्त्रियों की कुण्डली में होता उसका अंत हो जाता है। यह अल्पायु जैसे ज्ञात और अज्ञात योगों के दुष्प्रभाव को समाप्त कर देता है। अर्थात् वट सावित्री का व्रत वैवाहिक व दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने तथा अल्पायु योग को दीर्घायु में बदलने का सुगम साधन है। ज्योतिष के अद्वितीय विद्वान महर्षि नारद ने अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा सत्यवान के अल्पायु योग को समझ कर सावित्री को समय रहते सचेत किया था। परिणाम स्वरूप विकट परिस्थिति को समझ सावित्री ने वट सावित्री व्रत किया जिसके पुण्य प्रभाव से उसे धन, पुत्र, सौभाग्य की प्राप्ति हुई और ज्योतिष विद्या द्वारा ज्ञात अल्पायु योग, दीर्घायु में परिवर्तित हो गया। जिसकी कहानी संपूर्ण जगत में विदित है। अतएव अनेक धार्मिक व आध्यात्मिक अनुष्ठानों में व्रत उपवास को हमारे ऋषि-महर्षियों ने विषिष्ठ महत्त्व दिया है। जिसे विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः-से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। अतः संासारिक विषयों से निवृत्ति होने का उपवास अचूक साधन है। वट सावित्री जैसा पुण्य दायी व्रत सावित्री आदि जैसी नारियों को न केवल सौभाग्य, सुख, पुत्र, धन, समृद्धि आदि देने में सफल रहे हैं, बल्कि इस भौतिक जीवन से लेकर आध्यात्मिक जीवन को भी अपने पुण्य प्रभाव से सींच उन्नत बनाएं हुए है।