जानिए क्या है भीष्म अष्टमी पर्व का महत्व और पूजन विधि
भीष्म अष्टमी पर्व का महत्व-
माघ महीने की शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन भीमाष्टमी का पर्व मनाया जाता है. शास्त्रों के अनुसार इसी दिन भाष्म पितामाह ने अपने शरीर का त्याग किया था, इसलिए इस दिन को बिषम अष्टमी या निवार्ण के रूप में मनाया जाता है. मान्यताओं के अनुसार जो लोग पूरी श्रद्धा के साथ भीमाष्टमी का व्रत करते हैं उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. और साथ ही पितृदोष से भी मुक्ति मिलती है.मान्यताओं के अनुसार इस दिन भीष्म पितामाह ने अपनी इच्छा से अपने शरीर का त्याग किया था. इसलिए जो भी व्यक्ति इस दिन पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ भीष्म पितामह के नाम से तिल, जल के साथ श्राद्ध, तर्पण करता है और गरीबो को दान दक्षिणा देता उसे मृत्यु के पश्चात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।
भीष्म अष्टमी पूजन विधि-
• भीष्म अष्टमी का व्रत करने के लिए सबसे पहले प्रातःकाल में उठकर नित्यकर्मों से निवृत होकर किसी किसी सरोवर या नदी के तट पर स्नान करें.
• अगर आपके घर के आसपास कोई नदी या सरोवर नहीं है और आप अपने नहाने के पानी में थोड़ा सा गंगाजल मिलकर भी स्नान कर सकते हैं. ऐसा करने से आपको गंगा स्नान जितना ही पुण्य प्राप्त होगा.
• स्नान करने के पश्चात् शुद्ध और स्वच्छ वस्त्र धारण करके अपने हाथो में तिल, जल आदि लेकर लेकर गमछे को दाहिने कंधे पर रखे.
• अब दक्षिण दिशा की ओर मुख करके नीचे दिए गए मंत्र का जाप करें. मंत्रों का जाप करते हुए तिल-कुश युक्त जल को तर्जनी ऊँगली और अंगूठे के मध्य भाग से लेते हुए पात्र पर छोड़ें.
मंत्र
वैयाघ्रपादगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च
गङ्गापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे ॥ भीष्मः शान्तनवो वीरः सत्यवादी जितेन्द्रियः
आभिरद्भिरवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम् ॥
भीष्म अष्टमी व्रत के लाभ
• भीष्म अष्टमी का व्रत करने से अनजाने में किये गए पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं.
• अगर कोई दंपत्ति संतान की कामना के लिए भीष्म अष्टमी का व्रत करते हैं तो उन्हें सर्वगुण संपन्न और बलशाली संतान की प्राप्ति होती है.
• भीष्म अष्टमी के दिन भीष्म पितामह ने अपने इच्छा से अपने शरीर का त्याग किया था इसलिए यह दिन उनकी शांति का माना जाता है.
• जो भी मनुष्य इस दिन भीष्म पितामह के नाम से कुश तिल और जल से तर्पण करता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती है और मृत्यु के पश्चात् उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है.
भीष्माष्टमी व्रत कथा
महाभारत के तथ्यों के अनुसार गंगापुत्र देवव्रत की माता देवी गंगा अपने पति को दिये वचन के अनुसार अपने पुत्र को अपने साथ ले गई थी. देवव्रत की प्रारम्भिक शिक्षा और लालन-पालन इनकी माता के पास ही पूरा हुआ. इन्होनें महार्षि परशुराम जी से शस्त्र विद्धा ली. दैत्यगुरु शुक्राचार्य से भी इन्हें काफी कुछ सिखने का मौका मिला. अपनी अनुपम युद्धकला के लिये भी इन्हें विशेष रुप से जाना जाता है.
जब देवव्रत ने अपनी सभी शिक्षाएं पूरी कर ली तो, उन्हें उनकी माता ने उनके पिता को सौंप दिया. कई वर्षों के बाद पिता-पुत्र का मिलन हुआ, और महाराज शांतनु ने अपने पुत्र को युवराज घोषित कर दिया. समय व्यतीत होने पर सत्यवती नामक युवती पर मोहित होने के कारण महाराज शांतनु ने युवती से विवाह का आग्रह किया. युवती के पिता ने अपनी पुत्री का विवाह करने से पूर्व यह शर्त महाराज के सम्मुख रखी की, देवी सत्यवती की होने वाली संतान ही राज्य की उतराधिकारी बनेगी. इसी शर्त पर वे इस विवाह के लिये सहमति देगें.
यह शर्त महाराज को स्वीकार नहीं थी, परन्तु जब इसका ज्ञान उसके पुत्र देवव्रत को हुआ तो, उन्होंने अपने पिता के सुख को ध्यान में रखते हुए, यह भीष्म प्रतिज्ञा ली कि वे सारे जीवन में ब्रह्माचार्य व्रत का पालन करेगें. देवव्रत की प्रतिज्ञा से प्रसन्न होकर उसके पिता ने उसे इच्छा मृ्त्यु का वरदान दिया.
कालान्तर में भीष्म को पांच पांडवों के विरुद्ध युद्द करना पडा. शिखंडी पर शस्त्र न उठाने के अपने प्रण के कारण उन्होने युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग दिये. युद्ध में वे घायल हो, गये और 18 दिनों तक मृ्त्यु शया पर पडे रहें, परन्तु शरीर छोडने के लिये उन्होंने सूर्य के उतरायण होने की प्रतिक्षा की. जीवन की विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी प्रतिज्ञा को निभाने के कारण देवव्रत भीष्म के नाम से अमर हो गए.
माघ मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी को भीष्म पितामह की निर्वाण तिथि के रुप में मनाया जाता है. इस तिथि में कुश, तिल, जल से भीष्म पितामह का तर्पण करना चाहिए. इससे व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिलती है.
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