भगवान दत्तात्रेय को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है. भगवान दत्तात्रेय के अंदर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की तेजोमयी शक्ति का वास है. कलयुग में भगवान दत्तात्रेय की पूजा आदि गुरु के रूप में पूरे भारतवर्ष में की जाती है. सभी भक्तगण दत्तात्रेय की अलग-अलग प्रकार से भक्ति पूजा और उपासना करते हैं. माताएं भी अलग-अलग त्योहारों पर व्रत उपवास और कथा सुनकर भगवान् दत्तात्रेय की कृपा और प्रसाद पाना चाहती हैं. पुराणों के अनुसार दत्तात्रेय महासती अनुसूया के गर्भ से उत्पन्न हुए थे. दत्तात्रेय परम योग निष्ठ, श्रुति, स्मृति विहित कर्मकांड तथा मंत्र मार्ग के प्रवर्तक थे. भगवान दत्तात्रेय ने संस्कृत भाषा में बहुत सारे ग्रंथ लिखे हैं. जिनमें से "दत्तात्रेय तंत्र” प्रमुख है. आज हम आपको भगवान दत्तात्रेय के जीवन से जुड़ी कुछ विशेष बातें बताने जा रहे हैं.
भगवान दत्तात्रेय से जुड़ी खास बातें :-
- भगवान दत्तात्रेय की मूर्ति की अपेक्षा उनकी पादुका की पूजा अधिक की जाती है. कारंजा, परसोंबावड़ी आदि क्षेत्रों में भगवान दत्तात्रेय की पादुकोण की पूजा की जाती है.
- वैदिक संस्कृति में स्वान को अपवित्र समझा जाता है, पर इसका सिर्फ एक ही उत्तर है यह चार स्वान नहीं बल्कि चार वेद है जो स्वान के रूप में चारों तरफ विचरण करते हैं.
- इस बात से भगवान दत्तात्रेय चार वेदों से भी अधिक महान प्रतीत होते हैं. भगवान दत्तात्रेय भक्तों का संकट दूर करते हैं. वह अपने भक्तों का पालन करते हैं और अपने त्रिशूल से दुष्टों का नाश करते हैं.
- दत्तात्रेय की सबसे विशेष बात यह है कि उन्हें कभी क्रोध नहीं आता है. वह हमेशा राग लोभ निंदा से दूर रहते हैं.
- दत्तात्रेय की भक्ति का एक और कारण भी है. भगवान दत्तात्रेय के करीब भूत प्रेत नहीं आते हैं. इनके ऊपर जादू मंतर का भी असर नहीं होता है.
- अगर किसी मनुष्य पर भूत या प्रेत बाधा हो तो उसे भगवान दत्तात्रेय की पूजा करनी चाहिए.
भगवान् दत्तात्रेय का स्वरूप :-
- भगवान ब्रह्मा को खोज और सृजन का देवता माना जाता है. भगवान विष्णु विश्व के पालनकर्ता देवता है. इनके हाथ में शंख और चक्र है.
- भगवान शिव संघार के देवता है. इनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरु है. शिव को संघार का प्रतीक माना जाता है. भगवान दत्तात्रेय ने इन तीनों भगवानों से प्रेरणा लेकर इनके गुण अपने अंदर समाहित किए हैं. आज हम आपको भगवान दत्तात्रेय के जन्म से जुड़ी एक कथा बताने जा रहे हैं.
कथा :-
एक बार महर्षि नारद भगवान शंकर, विष्णु और ब्रह्मा जी से मिलने के लिए स्वर्ग लोग पहुंचे, पर नारद मुनि की मुलाकात तीनों में से किसी से भी नहीं हो पाई, पर तीनों की धर्मपत्नी अपने अपने लोको में मौजूद थी. देवपत्नियों से मिलने पर महर्षि नारद ने यह महसूस किया की त्रिदेवों की पत्नियां को अपने अपने पति की धर्मशील और सद्गुरु होने पर बड़ा अभिमान है. इसीलिए उन्होंने सबके पास जाकर कहा की मैंने अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूया के समान पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली स्त्री आज तक नहीं देखी. यह सुनकर पार्वती, लक्ष्मी और सावित्री को बहुत जलन महसूस हुई. नारद जी अपनी बात कह कर वापस चले गए. मगर वे तीनों बड़ी बेसब्री से अपने पतियों की प्रतीक्षा करने लगी.
जब ब्रह्मा विष्णु महेश वापस आए तो उन्होंने अपने पतियों से प्रार्थना की कि वे लोग सती अनुसुइया का पतिव्रत धर्म भंग कर दें. त्रिदेव इस अपनी पत्तियों की बात मानकर इस कार्य को करने के लिए मान गए. तीनों देवता देवी अनुसूया का पतिव्रत धर्म भंग करने के लिए एक साथ अत्रि मुनि के आश्रम पहुंचे.तब उन्होंने एक दूसरे से वहां आने का कारण पूछा तब पता चला कि तीनों का उद्देश्य एक ही है. तब तीनो ने एक साथ मिलकर यह कार्य करने का विचार किया. ब्रह्मा विष्णु महेश एक याचक के रूप में देवी अनुसूया से भिक्षा मांगने गए. जब देवी अनुसूया भिक्षा देने आयी तो वह बोले कि हम भिक्षा नहीं लेंगे बल्कि हमें भोजन करना है. अतिथि की सेवा करने के लिए अनुसूया बोली आप लोग गंगा स्नान करके आए तब तक मैं भोजन बनाती हूं. स्नान करने के बाद जब उनके सामने भोजन परोसा गया तो वह कहने लगे जब तक तुम नग्न होकर हमें भोजन नहीं खिलाओगी हम अन्न जल नहीं ग्रहण करेंगे. पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली अनुसूया को ब्रह्मा विष्णु महेश के छल कपट का पता चल गया. वह उन तीनों को बिठाकर अपने पति अत्रि ऋषि के पास गई और उनके चरण धोकर जल ले आई.
अपने पति अत्री ऋषि के चरणों के जल को उन्होंने त्रिदेव पर छिड़क दिया. जल के प्रभाव से तीनों देवता बच्चे बनकर बाल क्रीड़ा करने लगे. तब अनुसूया ने नग्न होकर उन्हें भरपेट दुग्ध पान करवाया और पालने में लिटा दिया. तीनों बच्चे पालने में खेलने लगे और माता अनुसूया मुस्कुराती हुई उनके मुंह को देखने लगी. इसी तरह कई दिन बीत गए. जब त्रिदेव स्वर्ग लोक लौटकर नहीं आए तब उनकी पत्नियों को चिंता होने लगी. एक दिन नारद मुनि वहां आए तो देवियों ने उनके सामने अपने अपने पति को लेकर चिंता रखी. नारद जी को सभी बातें पता थी पर उन्होंने अपनी अनभिज्ञता जाहिर करते हुए देव पत्नियों से कहा की मैं उन्हें काफी पहले अत्रि ऋषि के आश्रम के नजदीक देखा था. आप वही जाकर पता लगाएं. तीनों देवियां अपने-अपने पतियों को खोजती हुई अत्रि ऋषि के आश्रम गयी और अपने पतियों के बारे में पूछने लगी. सती अनुसूया ने मुस्कुराकर पालने की तरफ इशारा किया और बोली कि यही तुम्हारे पति है. इनमें से अपने-अपने पतियों को पहचान लो.
तीनों बच्चे एक ही समान लग रहे थे जिसके कारण उन्हें पहचानना कठिन था. महालक्ष्मी ने बहुत ही सोच समझकर एक बालक को विष्णु समझ कर उठा लिया, पर वह शिव निकले. इस बात पर सभी लोगों ने मां लक्ष्मी का बहुत मजाक उड़ाया. लक्ष्मी जी की यह दशा देखकर सावित्री और पार्वती भी चिंतित हो गई. तीनों हाथ जोड़कर सती अनुसूया से प्रार्थना करने लगी कि हे देवी हमें अपने अपने पति अलग-अलग प्रदान करें. देवी अनुसूया ने कहा इन बालकों ने मेरा दूध पिया है इसलिए ये मेरे ही मेरे पुत्र हैं. अब इन्हे किसी न किसी रूप में मेरे पास रहना होगा. तीनों देवता देवताओं ने उनकी इच्छा पूरी करने का आश्वासन दिया और वहां से विदा हो गए.
महासती शांडिल्य का सूर्य श्राप :-
एक दूसरी कथा के अनुसार एक समय महासती शांडिल्य ने सूर्य को उदय होने से रोक दिया जिसके कारण चारों तरफ अंधकार व्याप्त हो गया. इस बात से घबराकर ब्रह्मा विष्णु महेश अनुसूया जी के माध्यम से शांडिल्य सती को समझाने तथा सूर्य पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने का निवेदन करने के लिए उनके आश्रम गए. आश्रम जाकर उन्हें शांडिल्य के पति को मिले मांडवी ऋषि के श्राप तथा सूर्योदय होते ही पति कौशिक की मृत्यु का प्रसंग पता चला. तब माता अनुसूया ने शांडिल्य को वचन दिया की मृत्यु के पश्चात तुम्हारे पति पुनर्जीवित हो जाएंगे.
तब सूर्य देव से प्रार्थना करके शांडिल्य ने सूर्य के उदय होने का निवेदन किया. जैसे ही सूर्योदय हुआ वैसे ही ऋषि कौशिक के प्राण चले गए. परंतु अपने वचन के अनुसार ऋषि को माता अनुसूया ने संकल्प जल से दोबारा जीवित कर दिया. इस कल्याणकारी महा प्रभाव से सभी देवी देवता बहुत प्रसन्न हुए और वरदान देने की इच्छा जाहिर की. तब महा सती अनुसुइया ने अपनी पूर्व भावना के अनुसार त्रिदेव को एक ही बाल रूप में अपने गर्भ से जन्म देने का वर मांगा. सभी देवता तथास्तु कहकर विदा हो गए.
भगवान दत्तात्रेय का प्रादुर्भाव :-
- महासती शांडिल्य का आश्रम प्रतिष्ठानपुर में स्थित था. वहीं पर अनुसुइया और महर्षि अत्रि माहूरगढ़ में आश्रम बनाकर निवास करने लगे.
- उसी आश्रम में महर्षि अत्रि की समाधि के पश्चात उनकी आंखों से एक पवित्र ज्वाला निकली और महा सती अनुसूया के पेट में प्रवेश कर गई.
- 9 महीनों के पश्चात मार्गशीर्ष पूर्णिमा बुधवार के दिन त्रिमूर्ति स्वरूप में भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ. भगवान दत्तात्रेय के तीन मुख, 6 भुजाएं जिनमे ऊपर के दो हाथों में शंख, चक्र मध्य के दो हाथों में त्रिशूल, डमरू और नीचे के दो हाथों में कमंडल और माला थे.
- सिर पर जटा जूट, दिव्य देवकुंज था. दत्तात्रेय भगवान का दर्शन करके अत्री ऋषि और अनुसुइया धन्य हो गए, पर माता अनुसूया ने कहा कि है हे देव मैं आपके इस रूप का अपने पुत्र के रूप में लालन पालन कैसे करूंगी. इसलिए कृपया आप बाल रूप में अवतरित हो.
- भगवान ने नग्न भिक्षा के वक्त दिए गए वरदान को सफल बनाने के लिए स्वयं का दान किया था. तब भगवान दत्तात्रेय बाल रूप में आ गए. जो अत्रि ऋषि के पुत्र आत्रेय कहलाए.
- दत्तात्रेय ने 24 गुरुओं से अलग-अलग प्रकार की शिक्षा प्राप्त की. जिसका पूरा वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण में दिया गया है. इस प्रकार श्री दत्तात्रेय भगवान ब्रह्मा विष्णु और महेश के अवतार हैं.
- दत्तात्रेय भगवान का रुझान का प्रयोग में ज्यादा था. दत्तात्रेय भगवान की दृष्टि में पूरी दुनिया में जितने भी जीव है सब में परमात्मा का अंश मौजूद है. जिन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
- दत्तात्रेय पशु पक्षियों को भी अपना गुरु मानते थे. सभी को देखता मानते थे और इस भाव तथा तपस्या के बल पर वे भगवान दत्तात्रेय कहलाने लगे.
- समस्त देवगन भगवान दत्तात्रेय का आदर करते थे. भगवान दत्तात्रेय समाधि पर्वत की गुफा में कुत्ते बिल्लियों के साथ निवास करते थे.
- एक बार जम्भ नामक राक्षस ने देव लोक पर आक्रमण कर दिया और इंद्र की शांति भंग कर दी. जम्भ के आक्रमण से छुटकारा पाने के लिए इंद्र ब्रह्मा जी के पास गए और कोई उपाय पूछा.
- ब्रह्मा जी ने कहा की देवता आसुरी शक्ति के आगे देख तो हमेशा हार जाते हैं. इसलिए तुम लोग दत्तात्रेय के पास जाओ वही तुम्हें कुछ उपाय बताएंगे.
- तब देवता भगवान दत्तात्रेय के पास आए और उनकी पूजा अर्चना की. दत्तात्रेय ने कहा तुम जाकर युद्ध करो. युद्ध में हार जाने पर भागकर गुफा में छुपने के लिए मेरे पास आ जाना.
- तुम्हारा पीछा करते हुए राक्षस भी यहां आएंगे. तब मैं यहां मायावी लक्ष्मी का सृजन करूंगा. जब असुर लक्ष्मी को देखेंगे तो लक्ष्मी पर मोहित होकर सब कुछ भूलकर लक्ष्मी को पाने के लिए आपस में ही युद्ध करने लगेंगे.
- उन सबके सर पर लक्ष्मी का भूत सवार हो जाएगा. फिर उनका लक्ष्य तुम देवता नहीं रहोगे बल्कि वह लक्ष्मी को पाने के लिए आतुर हो जाएंगे.
- तब तुम लोग आसानी से जीत जाओगे. भगवान दत्तात्रेय की बात मानकर उन्होंने वैसा ही किया. राक्षस दत्तात्रेय की गुफा में आ गए. गुफा द्वार पर माया मोहिनी लक्ष्मी विराजमान थी. तब सभी असुरों के सर पर लक्ष्मी को पाने की सनक सवार हो गई और वे लक्ष्मी जी के लिए आपस में युद्ध करने लगे.
- तब देवताओं ने अवसर देखकर असुरों को ललकारा और उन्हें हराकर जम्भ राक्षस को मार दिया. जम्भ राक्षस के मरते ही बाकी के असुर भी अपनी जान बचाकर भाग गए.
- तब भगवान दत्तात्रेय ने देवताओं से कहा जब कोई व्यक्ति अपना लक्ष्य और कर्तव्य भूलकर जलन के कारण दूसरे की लक्ष्मी पाने की इच्छा करता है तो इसी प्रकार उसका पतन हो जाता है.
- इसलिए जो अपने पास है उसी से संतोष पूर्वक शांत और सुखी जीवन व्यतीत करना चाहिए.
भगवान दत्तात्रेय की पूजा का नियम :-
- दत्तात्रेय जयंती के दिन शाम के समय उपासना करें. सबसे पहले स्नान करने के बाद पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठें.
- अब अपने सामने भगवान दत्तात्रेय की मूर्ति स्थापित करके एक दीपक जलाएं. अब किसी भी माला से नीचे दिए गए मंत्र का 121 बार जप करें.
- मंत्र का जाप करने से पहले श्री दत्तात्रेय की स्तुति जरूर करें. ऐसा करने से मंत्र सिद्ध हो जाएगा. भगवान दत्तात्रेय की पूजा श्रद्धा पूर्वक करने से आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाएंगी.
मंत्र :-
दिगंबर दीनानाथ योगेंद्र योग बल्लभम गंगा सी सशक्त इन यश मंडल मंडल
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