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श्री गंगा जयंती on 11 May 2019 (Saturday)

श्री गंगा जयंती
गंगा जयंती का पर्व मां गंगा के जन्मोत्सव के रूप मे मनाया जाता है। इस षस्यष्यामला, वीर भोगनी, वेदगर्भा, धन, ऐष्वर्य व प्रकृति के मनोहारी छटाओं से पूर्ण भारतीय भूमि के पराक्रमी सपूतों ने धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति हेतु विष्व ही नहीं, बल्कि देव लोक मे भी अपने सतत प्रयास व पुरूषार्थ द्वारा सफलता का परचम लहरा दिया। ऐसे ही अथक प्रयासों व घोर तपस्या के द्वारा प्राचीन समय में भागीरथ ने अपने पुरखों व संसार के मोक्ष तथा उपकार के उद्देष्य से पतित पावनी, अमृतमयी गंगा की जलधारा को पृथ्वी पर अवतरित किया। जिसके पवित्र जल में स्नान, स्पर्ष व दर्षन मात्र से मानव युग-युगान्तरों से सुख, संतोष, मनोवांछितफल, आरोग्यता व मोक्ष प्राप्त करता चला आ रहा है। माँ गंगा का जल सम्पूर्ण प्राणियों को तृप्त कर धरा पर जीवन के अस्तित्व को बनाएं रखने में परम सहायक है, इसे देव नदी भी कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार देव व दैत्वों के महाभयानक युद्ध में देवताओं द्वारा मृत्यु को प्राप्त राक्षस, दैत्य गुरू षुक्राचार्य के द्वारा भगवान षिव से प्राप्त की गई संजीवनी विद्या के प्रयोग से पुनः सोकर उठे हुए की भांति खडे़ होकर अति भयानक युद्ध करने लगते। जो मत्स्यपुराण के अध्याय 249 के इस श्लोक संख्या 4 से स्पष्ट है-

पुरा देवासुरे युद्धे हताष्च षतषः सुरैः। पुनः संजीवनीं विद्यां प्रयोज्य भृगुनन्दनः।।
तब देवताओं ने अमृत प्राप्ति के उद्देष्य से दैत्यों को समुद्र मन्थन के लिए राजी कर लिया। वासुकीनाग रूपी रस्सी तथा अतिविषाल मन्दराचल पर्वत की मथानी बनाकर समुद्र मन्थन आरम्भ हुआ जिसमें कालकूल विष कामुधेन गाय, ऐरावत हाथी, लक्ष्मी सहित अनेक दुर्लभ रत्नों के बाद अमृत कलष का प्रार्दुभाव हुआ।

पवित्र जल स्रोत गंगा आदि जीवन के उद्धारक हैं बिना जल के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। हमारे तत्त्वज्ञ ऋषियों ने जल को पंच तत्त्वों में प्रमुख तत्त्व माना है। इसलिए वे सदैव जल स्रोतों व प्रकृति के सौंदर्य को संरक्षण देते हुए उसे सजाते रहते थे और भू-जल, तालाब, पोखरों का जल, झीलों का जल, नदियों का षुद्ध जल, तीर्थो का पवित्र जल और सबसे बढ़कर न सड़ने वाला अमृत जल गंगा जल को खोज निकाला और उसकी भूरि-भूरि प्रषंसा वेद पुराणों ने भी की, जो आरोग्यता व आयु को बढ़ाने वाला और मोक्ष दाता है। भारत के ऐसे पवित्रतम् जल स्थलों को देवताओं ने भी अमृत कलष को सुरक्षित रखने के योग्य माना और उसमें अमृत की बंूदें घोल उसे और भी परोपकारी व गुणकारी बना दिया। जहाँ सुख समृद्धि नृत्य करती थी, जो हरे-भरे चारागाहों में दुधारू गौओं, बाग-बगीचों में चहकते पक्षी, वन में वन्य जीवों सहित दहाड़ते सिंह, बाघ आदि। यह सब प्राकृतिक रूप से विष्व परिदृष्य में पूर्ण व अग्रविकसित भारत के सबूत थे। किन्तु मानव में आलस्य के सहारे भौतिक सुखों की लालसा बढ़ी और वह जीवन के प्रत्येक स्तर पर भौतिक साधनों के प्रयोग की ओर बढ़ा तथा मानव सभ्यता तेजी से नगरीय जीवन की ओर अग्रसर हुई और फिर तेजी से षुरू हुआ प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, चारागाहों, वन, और जल स्रोतों का अतिक्रमण। फलतः प्रमुख नदियों के मुहाने, तटों में औद्योगिक कचरा, षहर के नालों का गंदा पानी व अन्य गंदे व विषैले कचरे को गंगा-यमुना जैसे पवित्र अमृतमयी स्रोतों मे घोल दिया गया। जिससे इन पवित्र अमूल्य जल स्रातों के विलुप्त हो जाने का अत्यंत गम्भीर खतरा मंडरा रहा है। यह व्यथा सिर्फ भारत की ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विष्व की भी है जो कि भौतिकता व कथित विकास का सुखनामा ओढ़ साधु, संतों, तपोधन, बुद्धिजीवियों के चेताने पर भी प्रदूषण को समाप्त करने नदियों सेे अतिक्रमण हटाने व उन्हें प्रदूषण रहित बनाने में कोताही कर रहा है। किन्तु दुर्भाग्य! इस विकास व पूंजीवाद के सुखनामें ने महज अर्द्ध षतक ही पूरे किए होंगे कि उसे महा विनाष का चेहरा झलकने लगा और कभी 2012 तो कभी 2043 तो कभी 2050 या फिर इससे अधिक समय में सम्पूर्ण विनाष नज़र आता है। यद्यपि ऐसी कोई बात नहीं है, अभी तो कलियुग की षुरूआत अर्थात् प्रथम चरण का एक चैथाई समय भी नहीं पूर्ण हुआ तो महाविनाष कहाँ से आ टपका।
 
गंगा जैसे पवित्र जल स्रोतों, गौओं, वन्य जीवों, पेड़ों सहित प्रकृतिक की क्षति के फलस्वरूप दिनोंदिन बढ़ते तापमान को देख आज विष्व व विज्ञान हाथ खड़े कर महाविनाष की प्रतीक्षा कर रहा है। दुर्भाग्य! ऐसे समय जब उसे प्राकृतिक विनाष की आहट आने लगी तो भी प्रदूषण समाप्त करने के लिए कोई ठोस पहल नहीं है। शास्त्रों मे वर्णित युगालय, लय, प्रलय और महाप्रबल की बेला एक निष्चित क्रम में उपस्थित होती है जो उस देषकाल के सम्पूर्ण जीवन को तहस-नहस कर देती हैं, जिसे सूर्य का ताप जलाता है, समुद्र का जल डुबाता है और हवाएं उसे सुखाती हैं आदि। जिनकी तीव्रता व अधिकता एक निष्चित क्रम में होती है। किन्तु लुप्त होते गौ वंष, बढ़ते हुए गंगा के प्रदूषण व तापमान को ठंड़ा करने के लिए यदि दैवीय सत्ता से संचालित वायु, अग्नि जल सहित हिमालय पिघल पडे़ और समुद्र उमड़ पड़े तो यह मानव विकास की गर्मी से उत्पन्न असंतुलन का ही परिणाम होगा। आज इसके दुष्प्रभाव से जहाँ भारतीय आकाश में गिद्ध आदि पक्षियों ने पंख फैलाने बंद कर दिये हैं, वहीं गंगा-यमुना जैसे अमूल्य व पवित्रतम जल स्रोत गंदे नाले में तब्दील हो, इस सदी के विकास की निर्मम गाथा को साफ बयां कर रहे हैं। अर्थात् गंगा जयंती यानी पतित दुखियों का उद्धार करने वाली मां गंगा की जयंती सही माने तभी मनाई जा सकती है। जब गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाया जाए