महत्व
हिन्दू धर्म के अनुसार विवाह, वर व् वधु दोनों के लिए एक दूसरे जन्म के समान है| विवाह के पश्चात दोनों की ही परिवार व् एक दूसरे के प्रति जिम्मेदारियां बढ़ जातीं हैं| विवाह के बाद वर वधु दोनों ही एकदूसरे के साथ अपना पूरा जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा करते हैं| हर वैवाहिक जोड़ा यही चाहता है की विवाह के पश्चात उनका जीवन सुखद हो| अग्नि के सात फेरे लेकर वर व् वधु तन मन तथा आत्मा से एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं|
कभी कभी ऐसा होता है की व्यक्ति के तमाम प्रयासों के बाद भी या तो विवाह हो नहीं पता है या विवाह में विलम्भ होता है या विवाह होने के बाद विवाह में लगातार उतार चढ़ाव आता रहता है| इन्ही सब समस्याओं को दूर करने के लिए मनुष्य बहुत से तमाम तरह के उपाय, टोटके आदि करता है, परन्तु एक बहुत ही साधारण व् सरल उपाय करना नहीं जानता, देवों के देव महादेव व् माँ गौरी की उपासना, जो की शुक्ल पक्ष की गौरी तृतीया को करनी चाहिए।
गौरी तृतीया का व्रत शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि जिसे गणगौर के नाम से भी जाना जाता है| गौरी तृतीया का व्रत चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया यानि गणगौर से प्रारम्भ करना सबसे उत्तम होता है, अन्यथा आप इसे किसी भी शुक्ल पक्ष की तृतीया से प्रारम्भ कर सकतें हैं| गौरी तृतीया का व्रत एक मात्र ऐसा व्रत है, जिसको नियम अनुसार करने से शीघ्र विवाह व् सुखद वैवाहिक जीवन का वरदान प्राप्त होता है|
मान्यता|
मतस्यपुराण के अनुसार पूर्वकाल में जब सम्पूर्ण लोक दग्ध हो गया था, तब सभी प्राणियों का सौभाग्य एकत्र होकर बैकुण्ठलोक में विराजमान भगवान् श्री विष्णु के वक्षस्थल में स्थित हो गया| दीर्घ काल के बाद जब पुनः सृष्टि रचना का समय आया, तब प्रकर्ति और पुरुष से युक्त सम्पूर्ण लोको के अहंकार से आवृत्त हो जाने पर श्री ब्रह्माजी तथा श्री विष्णुजी में स्पर्धा जाग्रत हुई| उस समय पीले रंग तथा शिवलिंग के आकार की अत्यंत भयंकर ज्वाला प्रकट हुई| उससे भगवान श्री विष्णु का वक्षस्थल तप उठा, जिससे वह सौभाग्य पुंज वहां से गलित हो गया| श्री विष्णु के वक्षस्थल में स्थित वह सौभाग्य अभी रसरूप होकर धरती पर गिरने भी न पाया था की ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने उसे आकाश में ही रोक कर पी लिया, जिससे दक्ष का प्रभाव बढ़ गया| उनके पीने से बचा हुआ जो अंश पृथ्वी पर गिरा, वह आठ भागो में बंट गया, जिससे ईख रसराज आदि सात सौभाग्यदायिनी औषधियां उत्पन्न हुई तथा आठवां पदार्थ नमक बना| उक्त आठों पदार्थो को 'सुभाग्याष्टक' कहा गया|
दक्ष ने जिस सौभाग्य रास का पान किया था, उसके अंश के प्रभाव से उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई जो सटी नाम से प्रसिद्द हुई| उनके अद्भुत सौंदर्य माधुर्य तथा लालित्य के कारण सटी को ललिता भी कहा गया है| चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को भगवान् शंकर का देवी सटी के साथ विवाह हुआ था| इसलिए इस दिन उत्तम सौभाग्य के लिए व्रत करने का विधान है|
कथा 1:
एक बार भगवान शंकर तथा पार्वतीजी नारदजी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन एक गाँव में पहुँच गए। उनके आगमन का समाचार सुनकर गाँव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियाँ उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं।
भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफी विलंब हो गया। किंतु साधारण कुल की स्त्रियाँ श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुँच गईं। पार्वतीजी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। वे अटल सुहाग प्राप्ति का वरदान पाकर लौटीं। तत्पश्चात उच्च कुल की स्त्रियाँ अनेक प्रकार के पकवान लेकर गौरीजी और शंकरजी की पूजा करने पहुँचीं। सोने-चाँदी से निर्मित उनकी थालियों में विभिन्न प्रकार के पदार्थ थे।
उन स्त्रियों को देखकर भगवान शंकर ने पार्वतीजी से कहा- 'तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया। अब इन्हें क्या दोगी?'
पार्वतीजी ने उत्तर दिया- 'प्राणनाथ! आप इसकी चिंता मत कीजिए। उन स्त्रियों को मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है। इसलिए उनका रस धोती से रहेगा। परंतु मैं इन उच्च कुल की स्त्रियों को अपनी उँगली चीरकर अपने रक्त का सुहाग रस दूँगी। यह सुहाग रस जिसके भाग्य में पड़ेगा, वह तन-मन से मुझ जैसी सौभाग्यवती हो जाएगी।'
जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर दिया, तब पार्वतीजी ने अपनी उँगली चीरकर उन पर छिड़क दी। जिस पर जैसा छींटा पड़ा, उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। तत्पश्चात भगवान शिव की आज्ञा से पार्वतीजी ने नदी तट पर स्नान किया और बालू की शिव-मूर्ति बनाकर पूजन करने लगीं। पूजन के बाद बालू के पकवान बनाकर शिवजी को भोग लगाया।
प्रदक्षिणा करके नदी तट की मिट्टी से माथे पर तिलक लगाकर दो कण बालू का भोग लगाया। इतना सब करते-करते पार्वती को काफी समय लग गया। काफी देर बाद जब वे लौटकर आईं तो महादेवजी ने उनसे देर से आने का कारण पूछा।
उत्तर में पार्वतीजी ने झूठ ही कह दिया कि वहाँ मेरे भाई-भावज आदि मायके वाले मिल गए थे। उन्हीं से बातें करने में देर हो गई। परंतु महादेव तो महादेव ही थे। वे कुछ और ही लीला रचना चाहते थे। अतः उन्होंने पूछा- 'पार्वती! तुमने नदी के तट पर पूजन करके किस चीज का भोग लगाया था और स्वयं कौन-सा प्रसाद खाया था?'
स्वामी! पार्वतीजी ने पुनः झूठ बोल दिया- 'मेरी भावज ने मुझे दूध-भात खिलाया। उसे खाकर मैं सीधी यहाँ चली आ रही हूँ।' यह सुनकर शिवजी भी दूध-भात खाने की लालच में नदी-तट की ओर चल दिए। पार्वती दुविधा में पड़ गईं। तब उन्होंने मौन भाव से भगवान भोले शंकर का ही ध्यान किया और प्रार्थना की - हे भगवन! यदि मैं आपकी अनन्य दासी हूँ तो आप इस समय मेरी लाज रखिए।
यह प्रार्थना करती हुई पार्वतीजी भगवान शिव के पीछे-पीछे चलती रहीं। उन्हें दूर नदी के तट पर माया का महल दिखाई दिया। उस महल के भीतर पहुँचकर वे देखती हैं कि वहाँ शिवजी के साले तथा सलहज आदि सपरिवार उपस्थित हैं। उन्होंने गौरी तथा शंकर का भाव-भीना स्वागत किया। वे दो दिनों तक वहाँ रहे।
तीसरे दिन पार्वतीजी ने शिव से चलने के लिए कहा, पर शिवजी तैयार न हुए। वे अभी और रुकना चाहते थे। तब पार्वतीजी रूठकर अकेली ही चल दीं। ऐसी हालत में भगवान शिवजी को पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारदजी भी साथ-साथ चल दिए। चलते-चलते वे बहुत दूर निकल आए। उस समय भगवान सूर्य अपने धाम (पश्चिम) को पधार रहे थे। अचानक भगवान शंकर पार्वतीजी से बोले- 'मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूँ।'
'ठीक है, मैं ले आती हूँ।' - पार्वतीजी ने कहा और जाने को तत्पर हो गईं। परंतु भगवान ने उन्हें जाने की आज्ञा न दी और इस कार्य के लिए ब्रह्मपुत्र नारदजी को भेज दिया। परंतु वहाँ पहुँचने पर नारदजी को कोई महल नजर न आया। वहाँ तो दूर तक जंगल ही जंगल था, जिसमें हिंसक पशु विचर रहे थे। नारदजी वहाँ भटकने लगे और सोचने लगे कि कहीं वे किसी गलत स्थान पर तो नहीं आ गए? मगर सहसा ही बिजली चमकी और नारदजी को शिवजी की माला एक पेड़ पर टँगी हुई दिखाई दी। नारदजी ने माला उतार ली और शिवजी के पास पहुँचकर वहाँ का हाल बताया।
शिवजी ने हँसकर कहा- 'नारद! यह सब पार्वती की ही लीला है।'
इस पर पार्वती बोलीं- 'मैं किस योग्य हूँ।'
तब नारदजी ने सिर झुकाकर कहा- 'माता! आप पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप सौभाग्यवती समाज में आदिशक्ति हैं। यह सब आपके पतिव्रत का ही प्रभाव है। संसार की स्त्रियाँ आपके नाम-स्मरण मात्र से ही अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं और समस्त सिद्धियों को बना तथा मिटा सकती हैं। तब आपके लिए यह कर्म कौन-सी बड़ी बात है?' महामाये! गोपनीय पूजन अधिक शक्तिशाली तथा सार्थक होता है।
आपकी भावना तथा चमत्कारपूर्ण शक्ति को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मैं आशीर्वाद रूप में कहता हूँ कि जो स्त्रियाँ इसी तरह गुप्त रूप से पति का पूजन करके मंगलकामना करेंगी, उन्हें महादेवजी की कृपा से दीर्घायु वाले पति का संसर्ग मिलेगा।
कथा 2:
दैत्यराज हिरण्यकश्यप के पुत्र का नाम प्रहलाद था. बचपन से ही प्रह्लाद विष्णु का परम भक्त था. पहलाद के पिता हिरण्यकश्यप ने कठिन तपस्या करके ब्रह्मा जी से दिव्य वरदान पाया था और उसका दुरुपयोग कर रहा था. हिरण्यकश्यप ने स्वर्ग लोक पर भी अपना अधिकार कर लिया था और अपने भाई हिरण्याक्ष को मारने वाले भगवान विष्णु से नफरत करने लगा था. शायद इसीलिए उसके पुत्र प्रहलाद में विष्णु भगवान के प्रति भक्ति भावना जागृत हो गई थी. एक बार हिरण्यकश्यप अपने पुत्र की शिक्षा के विषय में जानने की कोशिश कर रहा था. तो उसे अपने पुत्र की विष्णु भक्ति का पता चला. तब उसने क्रोधित होकर प्रह्लाद को अपनी गोद से नीचे उतार दिया और उसे यातनाएं देने लगा. इन घटनाओं के बाद भी प्रहलाद के मन से भगवान विष्णु की भक्ति समाप्त नहीं हुई. तब हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह प्रहलाद को अपनी गोदी में लेकर आग में बैठ जाए.
होलिका ने अपने भाई की बात मानकर ऐसा ही किया. परंतु आग में बैठने के बाद होलिका का दुपट्टा जो उसे ब्रह्मा जी से मिला था भक्त पहलाद के शरीर पर आ गया. होलिका की पूरी शक्ति दुपट्टे में समाई थी. दुपट्टा जाने के बाद होलिका जल गई और प्रहलाद भगवान विष्णु का नाम लेते लेते आग से कुशलता पूर्वक बाहर आ गया. हिरण्यकश्यप का वध भगवान नरसिंह ने किया. इस अवसर पर नवीन धान जौ गेहूं चने के खेत पर तैयार हो जाते हैं और मानव समाज उनको इस्तेमाल में लेने का प्रयोजन भी करते हैं, पर धर्म प्राण हिंदू भगवान यज्ञेश्वर को समर्पित किए बिना नए अन्न का उपयोग नहीं किया जा सकता है. इसलिए फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को संविधान स्वरूप उपले आदि को इकट्ठा करके उसमें यज्ञ की विधि से अग्नि का स्थापन प्रतिष्ठा प्रज्ज्वलन और पूजन करके विविध मंत्रों से आहुति जाती जाती है और धान्य को घर आकर प्रतिष्ठित किया जाता है. होली के बाद वसंत ऋतु का आगमन होता है. पुराणों में बताया गया है कि नवविवाहिता स्त्री को पहली बार ससुराल में होलिका दहन नहीं देखना चाहिए.
कथा 3:
एक समय की बात है, किसी नगर में एक साहूकार रहता था. उसके घर में धन की कोई कमी नहीं थी लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी इस कारण वह बहुत दुखी था. पुत्र प्राप्ति के लिए वह प्रत्येक सोमवार व्रत रखता था और पूरी श्रद्धा के साथ शिव मंदिर जाकर भगवान शिव और पार्वती जी की पूजा करता था.
उसकी भक्ति देखकर एक दिन मां पार्वती प्रसन्न हो गईं और भगवान शिव से उस साहूकार की मनोकामना पूर्ण करने का आग्रह किया. पार्वती जी की इच्छा सुनकर भगवान शिव ने कहा कि 'हे पार्वती, इस संसार में हर प्राणी को उसके कर्मों का फल मिलता है और जिसके भाग्य में जो हो उसे भोगना ही पड़ता है.' लेकिन पार्वती जी ने साहूकार की भक्ति का मान रखने के लिए उसकी मनोकामना पूर्ण करने की इच्छा जताई.
माता पार्वती के आग्रह पर शिवजी ने साहूकार को पुत्र-प्राप्ति का वरदान तो दिया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि उसके बालक की आयु केवल बारह वर्ष होगी. माता पार्वती और भगवान शिव की बातचीत को साहूकार सुन रहा था. उसे ना तो इस बात की खुशी थी और ना ही दुख. वह पहले की भांति शिवजी की पूजा करता रहा.
कुछ समय के बाद साहूकार के घर एक पुत्र का जन्म हुआ. जब वह बालक ग्यारह वर्ष का हुआ तो उसे पढ़ने के लिए काशी भेज दिया गया. साहूकार ने पुत्र के मामा को बुलाकर उसे बहुत सारा धन दिया और कहा कि तुम इस बालक को काशी विद्या प्राप्ति के लिए ले जाओ और मार्ग में यज्ञ कराना. जहां भी यज्ञ कराओ वहां ब्राह्मणों को भोजन कराते और दक्षिणा देते हुए जाना.
दोनों मामा-भांजे इसी तरह यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते काशी की ओर चल पड़े. रात में एक नगर पड़ा जहां नगर के राजा की कन्या का विवाह था. लेकिन जिस राजकुमार से उसका विवाह होने वाला था वह एक आंख से काना था. राजकुमार के पिता ने अपने पुत्र के काना होने की बात को छुपाने के लिए एक चाल सोची.
साहूकार के पुत्र को देखकर उसके मन में एक विचार आया. उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं. विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर ले जाऊंगा. लड़के को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी से विवाह कर दिया गया. लेकिन साहूकार का पुत्र ईमानदार था. उसे यह बात न्यायसंगत नहीं लगी.
उसने अवसर पाकर राजकुमारी की चुन्नी के पल्ले पर लिखा कि 'तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ है लेकिन जिस राजकुमार के संग तुम्हें भेजा जाएगा वह एक आंख से काना है. मैं तो काशी पढ़ने जा रहा हूं.'
जब राजकुमारी ने चुन्नी पर लिखी बातें पढ़ी तो उसने अपने माता-पिता को यह बात बताई. राजा ने अपनी पुत्री को विदा नहीं किया जिससे बारात वापस चली गई. दूसरी ओर साहूकार का लड़का और उसका मामा काशी पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने यज्ञ किया. जिस दिन लड़के की आयु 12 साल की हुई उसी दिन यज्ञ रखा गया. लड़के ने अपने मामा से कहा कि मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है. मामा ने कहा कि तुम अंदर जाकर सो जाओ.
शिवजी के वरदानुसार कुछ ही देर में उस बालक के प्राण निकल गए. मृत भांजे को देख उसके मामा ने विलाप शुरू किया. संयोगवश उसी समय शिवजी और माता पार्वती उधर से जा रहे थे. पार्वती ने भगवान से कहा- स्वामी, मुझे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहा. आप इस व्यक्ति के कष्ट को अवश्य दूर करें.
जब शिवजी मृत बालक के समीप गए तो वह बोले कि यह उसी साहूकार का पुत्र है, जिसे मैंने 12 वर्ष की आयु का वरदान दिया. अब इसकी आयु पूरी हो चुकी है. लेकिन मातृ भाव से विभोर माता पार्वती ने कहा कि हे महादेव, आप इस बालक को और आयु देने की कृपा करें अन्यथा इसके वियोग में इसके माता-पिता भी तड़प-तड़प कर मर जाएंगे.
माता पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया. शिवजी की कृपा से वह लड़का जीवित हो गया. शिक्षा समाप्त करके लड़का मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया. दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां उसका विवाह हुआ था. उस नगर में भी उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया. उस लड़के के ससुर ने उसे पहचान लिया और महल में ले जाकर उसकी खातिरदारी की और अपनी पुत्री को विदा किया.
इधर साहूकार और उसकी पत्नी भूखे-प्यासे रहकर बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्होंने प्रण कर रखा था कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो वह भी प्राण त्याग देंगे परंतु अपने बेटे के जीवित होने का समाचार पाकर वह बेहद प्रसन्न हुए. उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- हे श्रेष्ठी, मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लम्बी आयु प्रदान की है. इसी प्रकार जो कोई सोमवार व्रत करता है या कथा सुनता और पढ़ता है उसके सभी दुख दूर होते हैं और समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.
पूजा सामग्री
दीपक, धुप, वस्त्र, फल, मिठाई, फूल, चन्दन, कुमकुम, मोली, गंगाजल, पंचामृत, रुद्राक्ष माला, श्रृंगार वस्तुएं|
गौरी तृतीया व्रत विधि|
इस दिन सूर्य उदय के पूर्व उठे|
स्नान करने के जल में गंगाजल मिलाएं व स्नान करें|
एक चौकी पर भगवान शंकर व माँ गौरी(सती) की मूर्ति स्थापना करें|
शंकर भगवान व माँ गौरी को चन्दन अर्पित करें|
उन्हें पंचामृत व जल से स्नान कराएं|
भगवान शंकर को श्वेत व माँ गौरी को पीले वस्त्र अर्पित करें|
उन्हें चन्दन व कुमकुम का तिलक करें|
उन्हें श्रृंगार वस्तुएं अर्पित करें|
भगवान शंकर को व माँ गौरी को लाल पीले फूलों की माला अर्पित करें|
उनके आगे घी का दीपक लगाएं व धुप दीप भी लगाएं|
उन्हें फल मिठाईयों आदि का भोग लगाएं|
अब माँ गौरी शंकर भगवान के नीचे दिए गए मन्त्र का जाप करें:
हे गौरी शंकरार्धांगि, यथा तवं संस्कार प्रियतथा मम कुरु कल्याणी, काँटा काण्टम सुदुर्लभा
अथवा
ऊँ उमामहेश्वराभ्यां नमः’’
ऊँ गौरये नमः
अब पूरा दिन भगवान शंकर व माँ गौरी का निरंतर ध्यान व पूजा करें|
किसी का दिल न दुखाएं, झूठ न बोलेन, चुगली न करें|
अब प्रदोष के समय भगवान शंकर माँ गौरी की फिर से पूजा उपासना करें|
उनके मन्त्र का जाप करें, उनकी आरती करें|
अब शाम के समय मीठा रोट बनाएं और उस से अपने व्रत का पारण करें|
उद्यापन|
गौरी तृतीया के व्रत हर महीने के दोनों तृतीया को तब तक करें जब तक आपकी मनोकामना पूर्ण नहीं होजाये| मनोकामना पूर्ण होने के पश्चात, शुक्ल पक्ष की तृतीया को निम्न विधि अनुसार व्रत का उद्यापन करें|
सुबह के समय सूर्य उदय के पूर्व उठें स्नान आदि कर खुद को शुद्ध करलें|
ऊपर बताई गई विधि के अनुसार व्रत सुबह की पूजा उपासना करें|
अब एक ब्राह्मण जोड़ा व् कन्याएं (अपनी क्षमता व् सामर्थय अनुसार) अपने घर पर आमंत्रित करें|
भोजन (खीर, पूरी, सब्ज़ी, रायता, मिठाईयां फल आदि) कन्याओं व् ब्राह्मणो को कराएं| प्रशाद में खीर अवश्य हो बाकि भोजन आप अपने सामर्थय अनुसार करा सकतें हैं|
ब्राह्मण को अन्न, वस्त्र, दक्षिणा, फल, मिठाई आदि का दान दें|
अन्न, वस्त्र, फल, मिठाई, आदि के साथ गौरी तृतीया की पुस्तक का दान भी अवश्य करें|
कन्याओं को क्षमता अनुसार उपहार, व दक्षिणा आदि दें|
यह व्रत चाहे वर रखे या वधु, इसका उद्यापन विवाह के उपरान्त पहली करवा चौथ के पहले आने वाली तृतीया को करें|