व्रत की कथाः - माँ दुर्गा का पंचम स्वरूप स्कन्दमाता का है। भगवान स्कन्द की माता होने के कारण इन्इें स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। कलम के आसन पर विराजमान होने के कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। माँ के इस स्वरूप की पूजा उपासना से सुख षान्ति और मोक्ष का द्वार स्वयमेव सुलभ हो जाता है।
ऽ माँ दुर्गा द्वारा रक्तबीज, महिषासुर आदि दैत्यों का बध आदि षक्ति माँ दुर्गा की जयकार और भक्त तथा देवगणों की रक्षा व कल्याण। इसी कल्याण के उद्देष्य से प्रतिवर्ष नवरात्रों में माँ की पूजा आराधना व यज्ञानुष्ठानों का आयोजन किया जाता है। दुर्गा सप्तसती माँ की आराधना का सबसे प्रमाणिक गं्रथ है।
व्रत या पूजा का प्रारम्भः - प्रातःकाल षौच स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त होकर उपरोक्त पूजा हेतु निष्चित पवित्र वस्त्र धारण कर उपरोक्त पूजन सामग्री व श्रीदुर्गासप्तषती की पुस्तक को ऊँचे व सुन्दर आसन में रखकर षुद्ध आसन मंे पूर्वाविमुख या उत्तराभिमुख होकर प्रसन्नता व भक्तिपूर्वक बैठकर माथे पर चन्दन लगाएं, पवित्र मंत्र बोलते हुए पवित्री करण, आचमन, करन्यासादि करें। इसके बाद श्रीगणेषादि देवताओं, गुरूजनों व ब्रह्मणों को प्रणाम करें।
इसके बाद हाथ में कुष की पवित्री, लालपुष्प, अक्षत, जल, स्वर्ण, चाँदी आदि की मुद्राओं द्वारा पूजा व व्रत का संकल्प लें। फिर षड़ोषपचार विधि से पूजा करें।
नोटः - पाठ गलत या अषुद्ध न करें न ही बहुत धीरे न ही बहुत जल्दी अर्थात् मध्यम गति से सुस्पष्ट उच्चारण करते हुए पाठ करना चाहिए। क्योंकि मंत्रों के गलत उच्चारण से पूजा का फल नहीं प्राप्त होता और अनिष्ट की आषंका बनी रहती है। दुर्गासप्तषती व अन्य पूजाकर्म पद्धति की किताबें जो षुद्ध रूप में और किसी प्रमाणित प्रेस आदि से प्रकाषित हो उन्हीं को प्रयोग में लाना चाहिए।
कुछ उपयोगी मंत्र या सम्पुटः-
कन्या संतान की षादी हेतु इस मंत्र का संपुट लगाकर पाठ करना या कराना चाहिए।
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यषो देहि द्विषो जहि।।
पुत्र की षादी अर्थात् पत्नी प्राप्ति हेतु इस मंत्र का संपुट लगाकर पाठ करना या कराना चाहिए।
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्।।
रोग या बीमारी नाष के लिए इस मंत्र का सम्पुट लगाना चाहिए।
रोगानषेषानपहंसि तुष्टा रूष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति।।
नवरात्रा व्रत में क्या करें, क्या नहीं करें ?
व्रत में क्रोध, आलस्य, चिंता नहीं करें। प्रसन्न चित्त व उत्साह पूर्वक माँ की पूजा करें। किसी बात में अविष्वास व संदेह न पैदा करें। नित्यादि क्रियाएं षुद्धता पूर्व करें, स्नान में सुगन्धित तेल, साबुन यदि संभव हो तो प्रयोग न करें। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करें, अर्थात् मैथुन आदि क्रियाएं न करें।
स्त्री/पुरूष प्रसंग, हास्य विनोद, अत्याधिक बोलना, जोर से हंसना, गुस्सा करने से बचें। सरल और षांति चित्त होकर व्रत का पालन करें। जल्दी-जल्दी पानी पीना और हर थोड़ी देर में खाने से भी बचें। दिन में सोना नहीं चाहिए, बल्कि कार्यो से निवृत्त होने पर जरूरत के अनुसार थोड़ा विश्राम करना चाहिए।
पाँचवां दिनः पंचम नवरात्रा
माहः चैत्र
ऋतुः वसन्त
पूजा का समय: प्रातःकाल से।
पाँचवें दिन की देवीः- माँ स्कन्दमाता हैं।
जिन माँ भगवती ने छान्दोग्यश्रुति के अनुसार षक्ति से सनत्कुमार (स्कन्द) को उत्पन्न किया और जो स्कन्द नाम से अखिल विष्व में व्याप्त हुई उन परमेष्वरी का नाम स्कन्दमाता है। अर्थात् स्कन्द के नाम से ही इन्हें स्कन्दमाता कहा जाता है। भक्तों को अभय और आरोग्यता देने वाली परम कृपालु हैं। इनकी पूजा से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं।
माँ की इस मूर्ति का रूप इस ष्लोक से स्पष्ट हैः-
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।
उपरोक्त षोडषोपचार विधि से पाँचवें दिन भी पूजा बडे श्रद्धा भक्ति से की जाती हैं और स्थापित कलष, दीप और अन्य प्रतिष्ठित वेदियों और देवी प्रतिमा में पूर्व दिन में चढ़ाई गयी पुष्पादि साम्रगी उतार लें और उपरोक्त क्रम को दोहराते हुए श्रद्धा, भक्ति पूर्वक हांथ जोड़कर पूजा आराधना तथा आरती करें और पूजा सम्पन्न होने के बाद प्रसाद आदि वितरित करें।