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आईये जानिए पिठौरी अमावस का महत्त्व on 19 Aug 2020 (Wednesday)

इस वसुमती की गोद में सदाचार, धर्म, कर्म व व्रत की पताका युग-युगान्तरों से फहराती चली आ रही है। जिसके सहारे यहां जीवन का अस्तित्व अनेकों युगों से वि़द्यमान है। धर्म शाश्त्रो मेें सद्आचण व सुकर्मों की अनेको कथाएं हैं। धर्म व सत्य की रक्षा हेतु साक्षात् प्रभु को भी जन्म के बंधनों में बंधना पड़ा। जीवन को सत्य पथ और धर्म की ओर अग्रसर करने तथा उसे नीरसता व चिंता से बचाने हेतु सद्कर्मों के साथ लौकिक व पारलौकिक जीवन को संवारने हेतु सत्य सनातन धर्म अर्थात् भारत भूमि ने तीज-त्यौहारों के अद्वितीय और विषाल हार को धारण कर रखा है। जो त्याग, बलिदान, भक्ति, श्रद्धा और कठिन परीक्षाओं की घड़ी में सोने की तरह अग्नि में भी तपकर अपनी चमक को और बढ़ा देता। अर्थात् त्याग, बलिदान व सत्य दया से तपकर यह हार सदियों से चमकता रहा है। जहां कुछ मेले व त्यौहारों का आयोजन परंमपरागत रूप से होता रहता है। इसी प्रकार पिठोरी अमावस को भी धर्म कार्यो को विधवत रूप से सम्पन्न किया जाता है। इसे कुषाग्रहणी या पिठौरी अमावस भी कहा जाता है। इस दिन धर्म कार्यो व शुभ कार्यों हेतु कुषा को पृथ्वी से उखाड़ने का विधान है। प्रति अमावस की तरह इस अमावस में भी देव, पितृ, ऋषि तर्पण व तीर्थ स्नानों में दान, स्नान का विशेष महत्त्व है। कुषा को उखाड़ते समय ऊँ हूँ फट् स्वाहा बोलते हुए उसके पास की मिट्टी को सावधानी पूर्वक हटाते हुए उखाड़ना चाहिए। जिससे वह धर्म कार्यों व जप आदि में संकल्प लेते समय कार्यो को सिद्ध करने में अति सहायक होता है। 

पिठौरी अमावस जो पितृ कार्यो एवं स्नादि कार्यो हेतु उत्तम है इस पर्व में पितरों के निमित्त तर्पण व दान करने से उनको शांति मिलती है। जिसके फलरूप व्यक्ति पितृ कोप व अनेकों बीमारियों से दूर रहते हुए जीवन को सुख शांति व चैन से जीने का अवसर प्राप्त करता है। वह रोगों व शोको के वषीभूत होकर दर-दर ठोकर खाने व अपने पास रखी पूॅंजी को खर्च करके दीन हीन नहीं बनता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का यह परम कत्र्तव्य है कि वह अपने पितरों के निमित्त तर्पण व दान करता रहे।