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प्रदोष व्रत और उसका महत्त्व on 14 Jun 2019 (Friday)

प्रदोष व्रत और उसका महत्त्व

जीवन मे शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक रूप से उन्नति प्राप्त करने तथा नाना प्रकार के दुख दर्दों को दूर करने के अति सूक्ष्म किन्तु सरल उपाय धर्मशास्त्रों मे महर्षियों ने बताएं हैं। जिसमें व्रत और उपवास प्रमुख हैं किन्तु व्रत में भोजनादि करने का विधान है लेकिन उपवास मे कुछ भी नहीं खाने अर्थात् निराहार (बिना आहार)े रहने का नियम होता है। इन व्रतों का आचरण करने से जहाँ रोग व पाप नष्ट होते हैं वहीं शरीर स्वस्थ होता है और मानसिक शांति मिलती है। इसी प्रकार का अति महत्त्वपूर्ण व्रत प्रदोष व्रत है, जिसे करने से भगवान शिवजी की कृपा व प्रसन्नता मिलती है।

प्रदोष व्रत प्रत्येक मास के कृष्ण और शुक्ल पक्ष की दोनांे त्रयोदषी में किया जाता है। सूर्यास्त से दो घटी का समय प्रदोषकाल कहलाता है। जो स्त्री पुरूष इस व्रत को श्रद्धा, विष्वास व भक्तिभाव के साथ करते हैं, उन्हें अन्नत ईष्वर भगवान शिव की कृपा से धन-धान्य, समृद्धि, सुख, स्त्री-पुत्र प्राप्त होते हैं तथा बन्धु-बान्धव जीवन में बढ़ते रहते हैं और जिस इच्छा से व्रत किया गया हो वह पूर्ण होती है।

इस व्रत मंे यदि कृष्ण पक्ष में सोमवार और शुक्ल पक्ष मे शनिवार हो तो यह प्रदोेष विषेेश फलदायक होता है। कृष्ण पक्ष के प्रदोेष मंे प्रदोेषव्यापिनी त्रयोदषी ली जाती है। इतना ही नहीं प्रदोषव्रत प्रत्येक त्रयोदषी अर्थात् श्रावण में सोमवार के दिन हो तो वह विषेेश फलप्रदायक हो जाता है। व्रती व्यक्ति को नित्यादि स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त होकर शिव मंदिर मे जाकर विविधि प्रकार से श्रीगणेश, गौरी, शिव की पूजा करनी चाहिए। दो घड़ी रात्रि जाने से पहले एक बार भोजन करने से परम पिता शिव की कृपा व प्रसन्नता प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त श्रावण माह के चार सोमव्रत और होते हैं, जिन्हें श्रावण महीने मे किया जा सकता है।

प्रदोेषकाल सूर्यास्त के बाद दो घड़ी तक का समय माना गया है। अतः व्रती प्रदोष काल सूर्यास्त के समय पुनः स्नान करके भगवान शिवमूर्ति के समीप सुखपूर्वक आसन में बैठकर जल, फल उत्तम किस्म के पुष्प, बिल्वपत्रादि से उमा-महेष्वर की पूजा अर्चना करना चाहिए।

यदि व्रती को साक्षात् शिवमूर्ति या शिवमंदिर नहीं मिलें तो किसी शुद्ध व ऊँचे स्थान जहां पर किसी तरह की गंदगी न हो, की मिट्टी को शुद्ध जल से भिगोकर पार्थिव शिव लिंग बनाकर पूजा करें।

पार्थिव पूजन का विधान-
"महेष्वराय नमः” कहकर अपने हाथ के अंगूठे के प्रमाण का पार्थिव शिव लिंग बनाएं। फिर "षूलपाणये नमः” से उनका ध्यान करें। तदान्तर "पिनाकपाणये नमः” से आवाहन करें इसके पष्चात् जलाभिषेक (स्नान) कराएं। "ऊँ नमः षिवाय” जपते हुए दूधादि से स्नान कराएं, और पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य पूजनादि की सामग्री अर्पित करंे।

पूजा के तत्पष्चात् हाथ जोड़कर क्षमा प्रार्थना करें और महादेवाय नमः से पूजित मूर्ति का विसर्जन करें। उस पार्थिव लिंग को ऐसी जगह विसर्जित करें जहां किसी का पैर न पड़ता हो। इस व्रत का पूर्ण समय 21 वर्ष तक है किन्तु किसी कारण वश या सामथ्र्य शक्ति न होने पर इसका उद्यापन 1,3,5,7,11 वर्षों मंे भी किया जा सकता है। अधिक विस्तार व नियम हेतु किसी योग्य वैदिक ब्राह्मण से सलाह ले सकते हैं। व्रतारम्भ व व्रत का उद्यापन शुभ मुहुर्त में किया जाना चाहिए। ग्रहण के दिन और चार से पांच दिन तक पहले और बाद मे भी व्रतारम्भ व उद्यापन नहीं करना चाहिए।