ऐसी तिथि जो हमारे सब संकटों को हर; जीवन में खुशाली देती है उसे संकष्टी चतुर्थी कहते हैं| इस दिन भगवान् श्री गणेश, विघ्न हरता, गौरी पुत्र की पूजा की जाती है उनके लिए व्रत उपवास भी किया जाता है|हर माह के दोनों पक्षों की चतुर्थी तिथि भगवान गणेश की पूजा की जाती है| हर माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को वैनायकी श्री गणेश चतुर्थी और कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी श्री गणेश चतुर्थी के रूप में मनाया जाता है। भगवन गणेश जी का सर्प्रथम हर शुभ कार्य या पूजा से पहले पूजन किया जाता है| श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं|
संकष्टी चतुर्थी की पूजा विधि -
1.संकष्टी चतुर्थी के दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नान कर लें.
2.सूर्य को अर्घ्य दें
3.एक चौकी या मंदिर में ही लाल वस्त्र बिछाएं और कलश स्थापना करें|
4.भगवन गणेश जी की मूर्ति स्थापना करें|
5.उन्हें जल अर्पित करें या जल का छींटा दें|
6.उन्हें हल्दी कुमकुम का तिलक करें और पीले वस्त्र अर्पित करें|
7.पीले फूलों की माला अर्पित करें और उन्हें दूर्वा भी अर्पित करें|
8.मोदक व् अन्य मिठाईयों का भोग लगाएं|
9.हरे फल का भी भोग लगाएं|
10.गणेश वंदना से शुरुआत कर अपनी पूजा प्राम्भ करें और आरती के साथ संपन्न करें|
11.शाम के समय फिर से गणेश पूजन करें और चन्द्रमा को अर्घ्य दे|
12.भगवान् गणेश को भोजन मिठाई का भोग लगाएं और व्रत का पारायण करें
क्यों मनाते हैं संकष्टी चतुर्थी?
संकष्टी चतुर्थी मनाने के पीछे कई मान्यताएं हैं जिनमें से एक यह भी प्रचलित है कि एक दिन माता पार्वती और भगवान शिव नदी किनारे बैठे हुए थे। और अचानक ही माता पार्वती का मन चोपड़ खेलने का हुआ। लेकिन उस समय वहां पार्वती और शिव के अलावा और कोई तीसरा नहीं था, ऐसे में कोई तीसरा व्यक्ति चाहिए था जो हार-जीत का फैसला कर सके। इस वजह से दोनों ने एक मिट्टी मूर्ति बनाकर उसमें जान फूंक दी। और उसे शिव व पार्वती के बीच हार जीत का फैसला करने को कहा।
चोपड़ के खेल में माता पार्वती विजयी हुईं। यह खेल लगातार चलता रहा जिसमें तीन से चार बार माता पार्वती जीतीं लेकिन एक बार बालक ने गलती से पार्वती को हारा हुआ और शिव को विजयी घोषित कर दिया। इस पर माता पार्वती क्रोधित हुईं। और उस बालक को लंगड़ा बना दिया। बच्चे ने अपनी गलती की माफी भी माता पार्वती से मांगी और कहा कि मुझसे गलती हो गई मुझे माफ कर दो। लेकिन माता पार्वती उस समय गुस्से में थीं और बालक की एक ना सुनी। और माता पार्वती ने कहा कि श्राप अब वापस नहीं लिया जा सकता। लेकिन एक उपाय है जो तुम्हें इससे मुक्ति दिला सकता है। और कहा कि इस जगह पर संकष्टी के दिन कुछ कन्याएं पूजा करने आती हैं।
तुम उनसे व्रत की विधि पूछना और उस व्रत को करना। बालक ने वैसा ही किया जैसा माता पार्वती ने कहा था। बालक की पूजा से भगवान गणेश प्रसन्न होते हैं और बालक की मनोकामाना पूरी करते हैं। इस कथा से यह मालूम होत है कि गणेश की पूजा यदि पूरी श्रद्धा से की जाए तो सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा -
एक समय की बात है कि विष्णु भगवान का विवाह लक्ष्मीजी के साथ निश्चित हो गया। विवाह की तैयारी होने लगी। सभी देवताओं को निमंत्रण भेजे गए, परंतु गणेशजी को निमंत्रण नहीं दिया, कारण जो भी रहा हो।
अब भगवान विष्णु की बारात जाने का समय आ गया। सभी देवता अपनी पत्नियों के साथ विवाह समारोह में आए। उन सबने देखा कि गणेशजी कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। तब वे आपस में चर्चा करने लगे कि क्या गणेशजी को नहीं न्योता है? या स्वयं गणेशजी ही नहीं आए हैं? सभी को इस बात पर आश्चर्य होने लगा। तभी सबने विचार किया कि विष्णु भगवान से ही इसका कारण पूछा जाए।
विष्णु भगवान से पूछने पर उन्होंने कहा कि हमने गणेशजी के पिता भोलेनाथ महादेव को न्योता भेजा है। यदि गणेशजी अपने पिता के साथ आना चाहते तो आ जाते, अलग से न्योता देने की कोई आवश्यकता भी नहीं थीं। दूसरी बात यह है कि उनको सवा मन मूंग, सवा मन चावल, सवा मन घी और सवा मन लड्डू का भोजन दिनभर में चाहिए। यदि गणेशजी नहीं आएंगे तो कोई बात नहीं। दूसरे के घर जाकर इतना सारा खाना-पीना अच्छा भी नहीं लगता।
इतनी वार्ता कर ही रहे थे कि किसी एक ने सुझाव दिया- यदि गणेशजी आ भी जाएं तो उनको द्वारपाल बनाकर बैठा देंगे कि आप घर की याद रखना। आप तो चूहे पर बैठकर धीरे-धीरे चलोगे तो बारात से बहुत पीछे रह जाओगे। यह सुझाव भी सबको पसंद आ गया, तो विष्णु भगवान ने भी अपनी सहमति दे दी।
होना क्या था कि इतने में गणेशजी वहां आ पहुंचे और उन्हें समझा-बुझाकर घर की रखवाली करने बैठा दिया। बारात चल दी, तब नारदजी ने देखा कि गणेशजी तो दरवाजे पर ही बैठे हुए हैं, तो वे गणेशजी के पास गए और रुकने का कारण पूछा। गणेशजी कहने लगे कि विष्णु भगवान ने मेरा बहुत अपमान किया है। नारदजी ने कहा कि आप अपनी मूषक सेना को आगे भेज दें, तो वह रास्ता खोद देगी जिससे उनके वाहन धरती में धंस जाएंगे, तब आपको सम्मानपूर्वक बुलाना पड़ेगा।
अब तो गणेशजी ने अपनी मूषक सेना जल्दी से आगे भेज दी और सेना ने जमीन पोली कर दी। जब बारात वहां से निकली तो रथों के पहिए धरती में धंस गए। लाख कोशिश करें, परंतु पहिए नहीं निकले। सभी ने अपने-अपने उपाय किए, परंतु पहिए तो नहीं निकले, बल्कि जगह-जगह से टूट गए। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए।
तब तो नारदजी ने कहा- आप लोगों ने गणेशजी का अपमान करके अच्छा नहीं किया। यदि उन्हें मनाकर लाया जाए तो आपका कार्य सिद्ध हो सकता है और यह संकट टल सकता है। शंकर भगवान ने अपने दूत नंदी को भेजा और वे गणेशजी को लेकर आए। गणेशजी का आदर-सम्मान के साथ पूजन किया, तब कहीं रथ के पहिए निकले। अब रथ के पहिए निकल को गए, परंतु वे टूट-फूट गए, तो उन्हें सुधारे कौन?
पास के खेत में खाती काम कर रहा था, उसे बुलाया गया। खाती अपना कार्य करने के पहले 'श्री गणेशाय नम:' कहकर गणेशजी की वंदना मन ही मन करने लगा। देखते ही देखते खाती ने सभी पहियों को ठीक कर दिया।
ब खाती कहने लगा कि हे देवताओं! आपने सर्वप्रथम गणेशजी को नहीं मनाया होगा और न ही उनकी पूजन की होगी इसीलिए तो आपके साथ यह संकट आया है। हम तो मूरख अज्ञानी हैं, फिर भी पहले गणेशजी को पूजते हैं, उनका ध्यान करते हैं। आप लोग तो देवतागण हैं, फिर भी आप गणेशजी को कैसे भूल गए? अब आप लोग भगवान श्री गणेशजी की जय बोलकर जाएं, तो आपके सब काम बन जाएंगे और कोई संकट भी नहीं आएगा।
ऐसा कहते हुए बारात वहां से चल दी और विष्णु भगवान का लक्ष्मीजी के साथ विवाह संपन्न कराके सभी सकुशल घर लौट आए। हे गणेशजी महाराज! आपने विष्णु को जैसो कारज सारियो, ऐसो कारज सबको सिद्ध करजो। बोलो गजानन भगवान की जय।