क्यों मनाया जाता है थाईपुसम का त्यौहार
थाईपुसम का महत्व-
थाईपुसम का त्योहार मुख्य रूप से दक्षिण भारत में मनाया जाता है. थाईपुसम के त्यौहार को तमिलनाडु तथा केरल के साथ साथ अमेरिका, श्रीलंका, अफ्रीका, थाइलैंड जैसे दूसरे देशों में भी तमिल समुदाय के लोग बहुत ही उत्साह और उल्लास के साथ मनाते है. थाईपुसम के दिन शिव जी के बड़े पुत्र भगवान मुर्गन की पूजा अर्चना करने का विधान है. थाईपुसम का उत्सव तमिल कैलेंडर के अनुसार थाई माह के पूर्णिमा तिथि के दिन मनाया जाता है. यह त्योहार तमिलनाडु में रहने वाले हिंदुओं का प्रमुख त्योहार माना है. थाईपुसम के दिन को बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रुप में मनाया जाता हैं.
थाईपुसम से जुडी विशेष बातें-
• थाईपुसम का यह विशेष पर्व पौराणिक कथाओं को याद दिलाने का काम करता है.
• मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान कार्तिकेय ने ताराकासुर और उसकी सेना का संघार किया था. तभी से इस दिन को बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रुप में मनाया जाता है और इस दिन थाईपुसम का यह विशेष उत्सव मनाया जाता है.
• थाईपुसम के इस पर्व से हमें ये पता चलता है कि मनुष्य के जीवन में भक्ति और श्रद्धा का क्या अर्थ होता है. क्योंकि श्रद्धा और भक्ति ऐसी शक्तियां है जो किसी के भी जीवन के बड़े से बड़े संकटों को दूर करने का कार्य करती है.
कैसे मनाते है थाईपुसम का त्यौहार-
• थाईपुसम का यह विशेष पर्व थाई महीने के पूर्णिमा तिथि से आरम्भ होकर अगले दस दिनों तक मनाया जाता है.
• इस पर्व के दौरान सभी भक्त मुर्गन भगवान की पूजा अर्चना करने के लिए मंदिरों में एकत्र होते हैं.
• थाईपुसम पर्व के दस दिनों के दौरान भारी संख्या में भक्त विशेष तरीकों से भगवान् मुरगन की पूजा अर्चना करने के लिए मंदिर में जाते हैं.
• इनमें से बहुत सारे भक्त ‘छत्रिस’ (एक विशेष कावड़) अपने कंधों पर रखकर मंदिर तक जाते हैं.
• कई भक्त इस दौरान नृत्य करते हुए ‘वेल वेल शक्ति वेल’ का जाप करते हुए कांवर को अपने कंधे पर लेकर आगे बढ़ते हैं.
• वेल वेल शक्ति वेल’ का यह जयकारा भगवान मुर्गन के सभी भक्तों के अंदर एक नयी शक्ति और उर्जा का संचार करता है और उनके मनोबल को बढ़ाने का काम करता है.
• कुछ भक्त भगवान मुर्गन के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा को ज़ाहिर करने के लिए अपनी जीभ में सुई से छेद करके भगवान् के दर्शन करने के लिए जाते हैं.
• इस दौरान सभी भक्त मुख्यतः पीले रंग के वस्त्र धारण करते है और भगवान मुर्गन को पीले रंग के फूल अर्पित करते हैं.
• थाईपुसम के अवसर पर भक्त विशेष पूजा के लिए कावड़ लेकर भगवान् का दर्शन करने के लिए निकलते है.
• इस दिन कुछ भक्त अपने कावंड़ के रूप में मटके या दूध के बर्तन को ले जाते हैं. वही कुछ भक्त बहुत सारी तकलीफों को सहते हुए अपनी त्वचा, जीभ या गाल में सुई से छेद करके कावड़ को अपने कंधो पर उठाकर ले जाते है.
• ऐसा करके भक्त मुर्गन भगवान के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा और विशवास का प्रदर्शन करते हैं।
आधुनिक परम्परा के अनुसार थाईपुसम-
• पुराने समय में थाईपुसम का यह पर्व विशेष रूप से दक्षिण राज्यों और श्रीलंका आदि में मनाया जाता था.
• आज के समय में थाईपुसम का त्यौहार सिंगापुर, अमेरिका, मलेशिया आदि जैसे विभिन्न देशों में रहने वाली तमिल आबादी भी बहुत ही धूम-धाम के साथ मानती है.
• थाईपुसम का पर्व मानाने के तरीके में पुराने समय से लेकर अबतक कोई खास अंतर नही आया है, बल्कि पुरे विश्व में इस त्योहार को और भी विस्तार पूर्वक मनाया जाने लगा है.
• थाईपुसम के पर्व के दिन बहुत सारे भक्त बहुत सारी तकलीफों का सामना करते हए अपने कंधे पर कावड़ लेके जाते है.
• ये भक्त भगवान की भक्ति में इतने मग्न रहते हैं कि इन्हे किसी भी प्रकार का कष्ट या तकलीफ महसूस नहीं होती है.
• पहले के मुकाबले आज के समय में अधिक संख्या में भक्त कावड़ लेके भगवान का दर्शन करने के लिए जाते हैं और भगवान के प्रति अपने श्रद्धा को दर्शाते हैं.
• आज के समय में अपनी अनोखी परम्परा की वजह से थाईपुसम का यह पर्व लोगो में बहुत लोकप्रिय होता जा रहा है.
कथा-
थाईपुसम में कावड़ी अत्तम के परम्परा का एक पौराणिक महत्व भी है। जिसके अनुसार एक बार भगवान शिव ने अगस्त ऋषि को दक्षिण भारत में दो पर्वत स्थापित करने का आदेश दिया। भगवान शिव के आज्ञानुसार उन्होंने शक्तिगीरी पर्वत और शिवगीरी हिल दोनो को एक जंगल में स्थापित कर दिया, इसके बाद का कार्य उन्होंने अपने शिष्य इदुमंबन को दे दिया।
जब इदुमंबन ने पर्वतों को हटाने के प्रयास किया तो, वह उन्हें उनके स्थान से हिला नही पाया। जिसके बाद उसने ईश्वर से सहायता मांगी और पर्वतों को ले जाने लगा काफी दूर तक चलने के बाद विश्राम करने के लिए वह दक्षिण भारत के पलानी नामक स्थान पर विश्राम करने के लिए रुका। विश्राम के पश्चात जब उसने पर्वतों को फिर से उठाना चाहा तो वह उन्हें फिर नही उठा पाया।
इसके पश्चात इदुंबन ने वहा एक युवक को देखा और उससे पर्वतों को उठाने में मदद करने के लिए कहा, लेकिन उस नवयुवक ने इदुंबन की सहायता करने से इंकार कर दिया और कहा ये पर्वत उसके हैं। जिसके पश्चात इंदुमबन और उस युवक में युद्ध छिड़ गया, कुछ देर बाद इंदुमबन को इस बात का अहसास हुआ कि वह युवक कोई और नही स्वयं भगवान शिव के पुत्र भगवान कार्तिकेय हैं। जिन्होंने अपने छोटे भाई गणेश से एक प्रतियोगिता में पराजित होने के बाद कैलाश पर्वत छोड़कर जंगलों में रहने लगे थे। बाद में भगवान शिव द्वारा मनाने पर वह मान जाते हैं।
इस भीषण युद्ध में इंदुमबन की मृत्यु हो जाती है, लेकिन इसके पश्चात भगवान शिव द्वारा उन्हें पुनः जीवीत कर दिया जाता है और ऐसा कहा जाता है कि इसके बाद इंदुबमन ने कहा था कि जो व्यक्ति भी इन पर्वतों पर बने मंदिर में कावड़ी लेकर जायेगा, उसकी इच्छा अवश्य पूरी होगी। इसी के बाद से कावड़ी लेकर जाने की यह प्रथा प्रचलित हुई और जो व्यक्ति तमिलनाडु के पिलानी स्थित भगवान मुर्गन के मंदिर में कावड़ लेके जाता है, वह मंदिर में जाने से पहले इंदुमबन की समाधि पर जरुर जाता है।