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भीष्म द्वादशी का महत्व और पूजन विधि

भीष्म द्वादशी का महत्व और पूजन विधि

भीष्म द्वादशी का महत्व -

हमारे शास्त्रों में भीष्म द्वादशी को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है. भीष्म द्वादशी का व्रत माघ मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाया जाता है. भीष्म द्वादशी को गोविंद द्वादशी और तिल द्वादशी भी कहा जाता है. जो लोग भीष्म द्वादशी का व्रत करते हैं उन्हें संतान के साथ साथ समस्त धन-धान्य और सौभाग्य का सुख मिलता है. धर्म ग्रंथों के अनुसार भीष्म द्वादशी का व्रत करने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और साथ ही सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती हैभीष्म द्वादशी व्रत सभी  प्रकार के सुख और वैभव प्रदान करने वाला होता है. भीष्म द्वादशी का व्रत करने से सभी पापों का नाश होता है. महाभारत कथा में बताया गया है की माघ मास में पड़ने वाली भीष्म द्वादशी के दिन जो भी मनुष्य तपस्वियों को तिल का दान करता है, उसे मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की प्राप्ति होती है. भीष्म द्वादशी के दिन जो मनुष्य दिन-रात उपवास करके श्रद्धा पूर्वक भगवान विष्णु की पूजा करता है उसे राजसूय यज्ञ के बराबर पुण्य प्राप्त होता है

भीष्म द्वादशी पूजन विधि

• भीष्म द्वादशी के दिन प्रातःकाल में उठकर नित्य कर्म से निवृत्त होने के पश्चात् स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें.

• स्नान करने के पश्चात भगवान लक्ष्मीनारायण का पूजन करें

• भगवन लक्ष्मी नारायण की पूजा में मौली, रोली, कुंमकुंम, केले के पत्ते, फल, पंचामृत, तिल, सुपारी, पान एवं दुर्वा आदि का प्रयोग करें

• अब भगवान् को भोग लगाने के लिए दूध, शहद, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत बनाये और इसी से भगवान को भोग लगाएं

• अब नीचे दिए गए मन्त्र का जाप करें. इस मन्त्र का जाप करने से सभी पापो का नाश होता है.

मन्त्र-

ऊं नमो नारायणाय नम

• अब भीष्म द्वादशी कथा सुने.

• कथा सुनने के पश्चात माँ लक्ष्मी और अन्य देवों की स्तुति-आरती करें

• पूजा संपन्न करने के पश्चात् सभी को चरणामृत और प्रसाद बांटें

• अब ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात् अपनी क्षमता अनुसार दक्षिणा दें

• अब अपने सम्पूर्ण घर-परिवार के साथ साथ अपने कल्याण धर्म, अर्थ, मोक्ष के लिए प्रार्थना करें

• भीष्म द्वादशी के दिन अपने पूर्वजों का तर्पण करने का भी नियम है.

• ब्राम्हणो को भोजन कराने के पश्चात् खुद भोजन ग्रहण करें.

कथा-

राजा शांतनु की रानी गंगा ने देवव्रत नामक पुत्र को जन्म दिया और उसके जन्म के बाद गंगा शांतनु को छोड़कर चली जाती हैं, क्योंकि उन्होंने ऐसा वचन दिया था। शांतनु गंगा के वियोग में दुखी रहने लगते हैं।

 

परंतु कुछ समय बीतने के बाद शांतनु गंगा नदी पार करने के लिए मत्स्य गंधा नाम की कन्या की नाव में बैठते हैं और उसके रूप-सौंदर्य पर मोहित हो जाते हैं।

 

राजा शांतनु कन्या के पिता के पास जाकर उनकी कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखते हैं। परंतु मत्स्य गंधा के पिता राजा शांतनु के समक्ष एक शर्त रखते हैं कि उनकी पुत्री को होने वाली संतान ही हस्तिनापुर राज्य की उत्तराधिकारी बनेगी, तभी यह विवाह हो सकता है। यही (मत्स्य गंधा) आगे चलकर सत्यवती नाम से प्रसिद्ध हुई।

 

राजा शांतनु यह शर्त मानने से इंकार करते हैं, लेकिन वे चिंतित रहने लगते हैं। देवव्रत को जब पिता की चिंता का कारण मालूम पड़ता है तो वह अपने पिता के समक्ष आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेते हैं। पुत्र की इस प्रतिज्ञा को सुनकर राजा शांतनु उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान देते हैं। इस प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत, भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए।

 

जब महाभारत का युद्ध होता है तो भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे होते हैं और भीष्म पितामह के युद्ध कौशल से कौरव जीतने लगते हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण एक चाल चलते हैं और शिखंडी को युद्ध में उनके समक्ष खड़ा कर देते हैं। अपनी प्रतिज्ञा अनुसार शिखंडी पर शस्त्र उठाने के कारण भीष्म युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग देते हैं। जिससे अन्य योद्धा अवसर पाते ही उन पर तीरों की बौछार शुरू कर देते हैं। महाभारत के इस महान योद्धा ने शरशैय्या पर शयन किया।

इसीलिए कहा जाता हैं कि सूर्य दक्षिणायन होने के कारण शास्त्रीय मतानुसार भीष्म ने अपने प्राण नहीं त्यागे और सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उन्होंने अष्टमी को अपने प्राण त्याग दिए थे। उनके पूजन के लिए माघ मास की द्वादशी तिथि निश्चित की गई है, इसीलिए इस तिथि को भीष्म द्वादशी कहा जाता है। भगवान ने यह व्रत भीष्म पितामह को बताया था और उन्होंने इस व्रत का पालन किया था, जिससे इसका नाम भीष्म द्वादशी पडा।

 

यह व्रत एकादशी के ठीक दूसरे दिन द्वादशी को किया जाता है। यह व्रत समस्त बीमारियों को मिटाता है। इस उपवास से समस्त पापों का नाश होकर मनुष्य को अमोघ फल प्राप्त होता है।

 

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