नरसिंह जयंती कथा
प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार कश्यप नाम का एक राजा था. उसके दो पुत्र थे हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप. एक बार हिरण्याक्ष धरती को पाताल लोक में ले गया. तब विष्णु जी ने क्रोध में आकर उसका वध कर दिया और वापस शेषनाग की पीठ पर धरती को स्थापित कर दिया. अपने भाई की मृत्यु के बाद हिरण्यकश्यप ने बदला लेने की योजना बनाई. इसके लिए उसने ब्रह्मा जी को कठोर तपस्या कर प्रसन्न किया और वरदान मांगा कि ना उसे कोई मानव मार सके और ना ही कोई पशु, उसकी ना दिन में मृत्यु हो ना रात में, ना घर के भीतर और ना बाहर, ना धरती पर और ना ही आकाश में, ना किसी अस्त्र से और किसी शस्त्र से.
यह वरदान प्राप्त कर उसे अंहकार हुआ कि उसे कोई नहीं मार सकता. वह स्वंय को भगवान समझने लगा. उसके अत्याचारों से तीनों लोक परेशान हो उठे. वह लोगों को तरह-तरह से कष्ट देने लगा. लेकिन हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का भक्त था. उसने प्रहलाद को विष्णु की भक्ति करने से रोका और मारने की कोशिश की.
एक दिन प्रहलाद ने अपने पिता से कहा कि भगवान विष्णु हर जगह मौजूद हैं, तो हिरण्यकश्यप ने उसे चुनौती देते हुए कहा कि अगर तुम्हारे भगवान सर्वत्र हैं, तो इस स्तंभ में वो क्यों नहीं दिखते? ये कहने के बाद उसने उस स्तंभ पर प्रहार किया. तभी स्तंभ में से भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में प्रकट हुए. यह आधा मानव आधा शेर का रूप था.
उन्होंने हिरण्यकश्यप को उठा लिया और उसे महल की दहलीज पर ले गए. भगवान नरसिंह ने उसे अपनी जांघों पर लिटाकर उसके सीने को नाखूनों से फाड़ दिया.
भगवान नरसिंह ने जिस स्थान पर हिरण्यकश्यप का वध किया, उस समय वह न तो घर के अदंर था और ना ही बाहर, ना दिन था और ना रात, भगवान नरसिंह ना पूरी तरह से मानव थे और न ही पशु. नरसिंह ने हिरण्यकश्यप को ना धरती पर मारा ना ही आकाश में बल्कि अपनी जांघों पर मारा. मारते हुए शस्त्र-अस्त्र नहीं बल्कि अपने नाखूनों का इस्तेमाल किया. हिंदु धर्म में इसी दिन को नरसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है.