पौराणिक कथा के अनुसार किसी समय में भद्रावती नामक एक बहुत ही सुंदर नगर हुआ करता था जहां धृतिमान नामक राजा राज किया करते थे. राजा बहुत ही पुण्यात्मा थे. उनके राज में प्रजा भी धार्मिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर भाग लेती. इसी नगर में धनपाल नाम का एक वैश्य भी रहता था. धनपाल भगवान विष्णु के परम भक्त और एक पुण्यकारी सेठ थे. भगवान विष्णु की कृपा से ही इनकी पांच संतान थीं. इनके सबसे छोटे पुत्र का नाम था धृष्टबुद्धि. उसका यह नाम उसके धृष्टकर्मों के कारण ही पड़ा. बाकि चार पुत्र पिता की तरह बहुत ही नेक थे. लेकिन धृष्टबुद्धि ने कोई ऐसा पाप कर्म नहीं छोड़ा जो उसने न किया हो. तंग आकर पिता ने उसे बेदखल कर दिया. भाइयों ने भी ऐसे पापी भाई से नाता तोड़ लिया, जो धृष्टबुद्धि पिता व भाइयों की मेहनत पर ऐश करता था. अब वह दर-दर की ठोकरें खाने लगा. ऐशो-आराम तो दूर खाने के लाले पड़ गए. किसी पूर्वजन्म के पुण्यकर्म ही होंगे कि वह भटकते-भटकते कौण्डिल्य ऋषि के आश्रम में पंहुच गया. जाकर महर्षि के चरणों में गिर पड़ा. पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए वह कुछ-कुछ पवित्र भी होने लगा था. महर्षि को अपनी पूरी व्यथा बताई और पश्चाताप का उपाय जानना चाहा. उस समय ऋषि मुनि शरणागत का मार्गदर्शन अवश्य किया करते और पातक को भी मोक्ष प्राप्ति के उपाय बता दिया करते. ऋषि ने कहा कि वैशाख शुक्ल की एकादशी बहुत ही पुण्य फलदायी होती है. इसका उपवास करो तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी. धृष्टबुद्धि ने महर्षि की बताई विधिनुसार वैशाख शुक्ल एकादशी यानी मोहिनी एकादशी (Mohini Ekadashi) का उपवास किया. इसके बाद उसे पापकर्मों से छुटकारा मिला और मोक्ष की प्राप्ति हुई.
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