देवशयनी एकादशी विशेषता|
वसुंधरा को श्रेष्ठ व पुण्य कर्मो से सींच मानव सभ्यता के उपवन को नाना विधि से सजाने के नायाब तौर-तरीके धर्म ग्रंथ के पन्नों में भरे पड़े हैं। व्रत, त्यौहार, पूजा, जप, अनुष्ठान, होम, यज्ञ, तपस्या जैसे अनूठे तरीके जो सूर्य की तरह घनघोर काले अंधकार को चीर प्रत्येक सुबह को जन्म देते हैं। जिसकी एक किरण फूटते ही संपूर्ण संसार में भयानक अंधकार (तम) का नाष हो जाता है।
मानव जीवन में काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईष्र्या की काली घटाएं घिर उसे दुःख, दारिद्रता, रोग, षोक, की वर्षा से भिगो देती हैं। जिस वर्षा के जल को व्रत व पुण्य कर्म रूपी सूर्य की किरणें भाप बनाकर उड़ा ले जाती हैं। इसी प्रकार एकादषियों का फल है मनुष्य चाहे जैसे पाप कर्म गुरू निंदा, ब्रह्म, गो हत्या, मिथ्या बचनादि के पापों मे भीगा हो, उसे एकादषी का पुण्य प्रताप समूल नष्ट कर देता है। जिसका वर्णन नारद, पद्म, गुरूड़ पुराण व वराह पुराणों मे मिलता है।
व्रत नित्य, नैमित्तिक और काम्य तीन प्रकार के होते हैं। महर्षि व्यास एकादषी की कथा पांडवों सहित ऋषियों को सुनाते हुए कहते हैं यह नित्य व्रत है जिसे न करने से पाप लगता है। इसी प्रकार देवषयनी एकादषी के व्रत के विषय में जिज्ञासु व श्रद्धा से पूर्ण गान्ड़ीवधारी अर्जुन बोले हे! जगतगुरू प्रभु श्रीकृष्ण आषाढ़ मास के ष्षुक्ल पक्ष की एकादषी व्रत का क्या नाम है और उसे किस विधान से श्रद्धालु भक्तों को करना चाहिए तथा उसे करने से किस प्रकार का फल प्राप्त होता है। हे प्रभु! इस एकादषी में मे क्या खाने का विधान है और इसके पूजन के क्या नियम हैं, इस प्रकार अनेक जिज्ञासों से पूरित भवन श्रीकृष्ण ने महान धनुर्धर अर्जुन को विस्तार पूर्ण इस देवषयनी एकादषी व्रत के विषय में बताते है। हे अर्जुन! सुनो इस धरा में क्षुधा, तृष्णा, काम क्रोध, लोभ, मोह वष जो भी पाप प्राणियों से होते उनमें कई ऐसे है जो जन्म-जन्मान्तरों तक उस कर्ता का पीछा नहीं छोड़ते उसे उन्हें भोगना ही पड़ता है। जैसे प्रत्यक्ष में रूप में देखा जाता है कि अमुक व्यक्ति ने क्रियमाण कर्म षुभ किए हैं किन्तु वह भोग अषुभ फल रहा है ऐसे परिणामों को देख प्रारब्ध कर्म की बात स्वीकार की जाती है। अर्थात् इस संसार में नाना कर्मो से उत्पन्न पाप व दुःखों को नष्ट करने की क्षमता धर्म, पुण्य, व्रत, तप, दान, दया आदि गुण रखते है। जिसके प्रभाव से सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार जो देवषयनी एकादषी का व्रत करता है उसके पापों का पुंज नष्ट हो जाता है, इस व्रत के संकल्प से पूजन व पालन करने से सभी तरह के पाप नष्ट हो जाते हैं-
इस व्रत में स्वर्णादि वस्तुएं दक्षिणा सहित ब्राह्माण को दान देने का विधान है। व्रत की सफलता हेतु हिंसा, अन्याय, क्रोध, अपवित्रता, जलपान, दिन में सोना, मैथुन, सट््टा या जुआ कुसंगति व तामसिक पदार्थो से दूर रहना चाहिए। अर्थात् षुभ व धार्मिक कार्य करने चाहिए जिससे व्रत का पुण्य लाभ प्राप्त किया जा सके इसके पष्चात् यथा संभव ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नमः या ऊँ नमो श्री नारायणाय नमः का जाप करना चाहिए।
पौराणिक कथा
इस व्रत के विषय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पौराणिक कथा सुनाते हुए बताते है कि एक सूर्यवंषी मान्धाता नाम का राजा था। वह सत्य, धर्म, दान और प्रताप से पूर्ण चक्रवर्ती नरेष था। वह अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत भाव से करता था। सम्पूर्ण राज्य धन्य, धान्य से पूर्ण था तथा प्रजा खुषहाल थी। किन्तु किसी कारण वष राज्य में अकाल पड़ गया और सारी प्रजा हाहाकार करने लगी। इस संकट के समय राजा ने सोचा कि राजा के किए हुए कर्म प्रजा और पिता के कर्म को पुत्र, पुत्री तथा पत्नी व पति के कर्म को दोनों परस्पर भोगते हैं।
ऐसा विचार कर राजा ऋषि के आश्रम में गया और अपने धार्मिक और वैदिक आचरण का उल्लेख करते हुए कहा महाराज मै सदैव वैदिक व धार्मिक आचरण ही करता रहा हूँ। किन्तु इस समय मेरा राज्य तीन वर्षो से लगातार सूखाग्रस्त हो रहा है। इस पर मुनि ने ध्यान लगाकर देखा जिसमें एक षूद्र तपस्यारत था जो सतयुग के अनुसार अधर्म और अनैतिक कर्म था। क्योंकि उस समय सतयुग के अनुसार तप और वेद पाठन का अधिकार ब्राह्मण को ही था। जिससे राजा के यहां सूखा पड़ गया इसकी निवृत्ति हेतु राजा को षूद्र का वध करना था किन्तु वह धार्मिक होने के कारण इस कार्य को करने के लिए असमर्थतता जताई और कोई दूसरे उपाय पूछा जिसमें उन्होंने देवषयनी एकादषी व्रत का पालन करने के लिए कहा जिसके पुण्य प्रभाव से सम्पूर्ण राज्य में वर्षा हुई और राजा तथा प्रजा खुषहाल रहने लगे। किन्तु मन, वचन कर्म पर छाए घने अंधेरे को दूर करने के लिए व्रतादि धार्मिक कार्य अचूक साधन हैं। जिन्हें नियम व निष्ठा पूर्वक कर प्रत्येक मानव लौकिक व पारलौकिक जीवन को संवार सकता है।
इस तपोभूमि में धर्म, कर्म व दान के द्वारा अनेको लोगों ने काम, क्रोध, मद, लोभ के तूफानों को उखाड़ने में सफलता हासिल की। जिन्हें सदियों से कई सभ्यताओं ने देखा। पतित, पथ भ्रष्ट, काम, क्रोध, लोभ के थेपेड़ांे से लहूलुहान विकल जीवन जिसे कहीं कोई राह सूझ नहीं रही हैं जो मानव जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को भूल इनकी भूल भुलैया में गुम हो गया है। ऐसे प्रत्येक जीवन के लिए पूरे विष्व भर में भारत भूमि प्रेरणा स्रोत बनी हुईहै।
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