||श्री हरी चालीसा||
दोहा
विष्णु सुनिए विनयसेवक की चितलाय।
कीरत कुछ वर्णनकरूं दीजै ज्ञानबताय।
चौपाई
नमो विष्णु भगवानखरारी।
कष्ट नशावन अखिलबिहारी॥
प्रबल जगत मेंशक्ति तुम्हारी।
त्रिभुवन फैल रहीउजियारी॥
सुन्दर रूप मनोहरसूरत।
सरल स्वभाव मोहनीमूरत॥
तन पर पीतांबर अति सोहत।
बैजन्ती माला मनमोहत॥
शंख चक्र करगदा बिराजे।
देखत दैत्य असुरदल भाजे॥
सत्य धर्म मदलोभ न गाजे।
काम क्रोध मदलोभ न छाजे॥
संतभक्त सज्जन मनरंजन।
दनुज असुर दुष्टनदल गंजन॥
सुख उपजाय कष्टसब भंजन।
दोष मिटाय करतजन सज्जन॥
पाप काट भवसिंधु उतारण।
कष्ट नाशकर भक्तउबारण॥
करत अनेक रूपप्रभु धारण।
केवल आप भक्तिके कारण॥
धरणि धेनु बनतुमहिं पुकारा।
तब तुम रूपराम का धारा॥
भार उतार असुरदल मारा।
रावण आदिक कोसंहारा॥
आप वराह रूपबनाया।
हरण्याक्ष को मारगिराया॥
धर मत्स्य तनसिंधु बनाया।
चौदह रतनन कोनिकलाया॥
अमिलख असुरन द्वंद मचाया।
रूप मोहनी आपदिखाया॥
देवन को अमृतपान कराया।
असुरन को छविसे बहलाया॥
कूर्म रूप धरसिंधु मझाया।
मंद्राचल गिरि तुरतउठाया॥
शंकर का तुमफन्द छुड़ाया।
भस्मासुर को रूपदिखाया॥
वेदन को जबअसुर डुबाया।
कर प्रबंध उन्हें ढूँढवाया॥
मोहित बनकर खलहिनचाया।
उसही कर सेभस्म कराया॥
असुर जलंधर अति बलदाई।
शंकर से उनकीन्ह लडाई॥
हार पार शिवसकल बनाई।
कीन सती सेछल खल जाई॥
सुमिरन कीन तुम्हेंशिवरानी।
बतलाई सब विपतकहानी॥
तब तुम बनेमुनीश्वर ज्ञानी।
वृन्दा की सबसुरति भुलानी॥
देखत तीन दनुजशैतानी।
वृन्दा आय तुम्हेंलपटानी॥
हो स्पर्श धर्मक्षति मानी।
हना असुर उरशिव शैतानी॥
तुमने ध्रुव प्रहलादउबारे।
हिरणाकुश आदिक खलमारे॥
गणिका और अजामिलतारे।
बहुत भक्त भवसिन्धु उतारे॥
हरहु सकल संतापहमारे।
कृपा करहु हरिसिरजन हारे॥
देखहुं मैं निजदरश तुम्हारे।
दीन बन्धु भक्तनहितकारे॥
चहत आपका सेवकदर्शन।
करहु दया अपनीमधुसूदन॥
जानूं नहीं योग्यजप पूजन।
होय यज्ञ स्तुतिअनुमोदन॥
शीलदया सन्तोष सुलक्षण।
विदित नहीं व्रतबोधविलक्षण॥
करहुं आपका किसविधि पूजन।
कुमति विलोक होतदुख भीषण॥
करहुं प्रणाम कौनविधिसुमिरण।
कौन भांति मैंकरहु समर्पण॥
सुर मुनि करतसदा सेवकाई।
हर्षित रहत परमगति पाई॥
दीन दुखिन परसदा सहाई।
निज जन जानलेव अपनाई॥
पाप दोष संतापनशाओ।
भव-बंधन सेमुक्त कराओ॥
सुख संपत्ति दे सुख उपजाओ।
निज चरनन कादास बनाओ॥
निगम सदा येविनय सुनावै।
पढ़ै सुनै सोजन सुख पावै॥
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