मानव आजीवन सुख की खोज में युग-युगान्तरों से रात-दिन लगातार भटकता रहता है। वह दुःख से हजारों मील दूर रहने का असफल प्रयास करता रहता है। इस प्रयास मे वह जाने अनजाने कितने ही उपाय करता रहता है। किन्तु इस संसार के विपिन में काम, क्रोध, मोह, लोभ के भयानक ताप उसे ऐसे तपाते हैं कि उसका दम ही फूलने लगता है, वह ऐसे सुखद तरू की छाया को खोजता है जो उसे इस भयानक ताप, दुःख से राहत दे सके। जीवन को सफल व सुखी बनाने हेतु धर्म ग्रंथों के पन्नों में अनेकों नायाब तरीके सजे पड़े हुए हैं। जिनके पुण्य प्रभाव से काम, क्रोध, मोह, लोभ ,भय, दुख आदि की काली घटाएं जीवन में नहीं घिर पाती हैं। व्रत हमें हर कदम पर परोपकारी तरू की तरह विभिन्न त्यौहारों के रूप में प्राप्त होते हैं।
एकादशी का व्रत इसी प्रकार का परोकारी तरू है जो हमें प्रत्येक महीने के कृष्ण व शुक्ल पक्ष में प्राप्त होता है। एकादशी का व्रत व्रतों मे व्रत राज है जैसे-ऋतुओं में बसंत ऋतुराज है। जिसके पुण्य प्रभाव से दुःख, दारिद्र, शोक, का निवारण हो जाता है और पुनर्जन्म के बंधन से छुटकारा मिल जाता है तथा कई पीढ़ी के पुर्खे तर जाते हैं। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष एकादशी को अजा एकादशी कहते हैं, जो बहुत ही पुण्यफल दायक व्रत श्री हरि विष्णु भगवान के प्रति श्रद्धा व विश्वास का व्रत है। इस व्रत को बड़े ही श्रद्धा के साथ किया जाना चाहिए।
- व्रती को नित्य कर्म से निवृत्त होकर माँ लक्ष्मी व भगवान विष्णु की पूजा षोड़षोपचार विधि से करनी या किसी ब्राह्मण से करवानी चाहिए।
- भगवान विष्णु का वंदन पूजन करने के बाद उन्हें प्रसाद अर्पण करें।
- फिर उस प्रसाद को भक्त जनों मे बांटे और खुद भी प्रसाद खाएं व्रत में किसी प्रकार का अ्रन्न व अन्न से बनी चीज़े नहीं खानी चाहिए।
- व्रती को धूम्रपान, तामसिक आहारों के सेवन से बचना चाहिए।
- दिन-रात भगवान के कीर्तन व भजन में मस्त हो दिनचर्या बितानी चाहिए।
- निंद्रा का त्याग करें।
- ब्रह्मचर्य का पालन करें, रात जागरण कर भगवत भजन करते रहना चाहिए। जिससे व्रती को धन, पुत्र, व जीवन का सुख प्राप्त होता और अंतकाल में बैकुण्ठ में वास मिलता है।
- यह व्रत दुख दारिद्र मिटा मानव जीवन को खुशहाल बनाता है।
अजा एकादशी की कथा:
इस व्रत के विषय में पौराणिक कथा है कि सत्य शिरोमणि राजा हरिष्चंद्र ने स्वप्न में अपना सारा राज-पाट महर्षि विश्वामित्र को दान में दे दिया। अपने स्वप्न के अनुसार महर्षि विश्वामित्र को राज्य सौंपने के बाद उन्हें कुछ स्वर्ण मुद्राएं दक्षिणा में देने हेतु पत्नी व बेटे सहित खुद की नीलामी करनी पड़ी इस नीलामी में उन्हें चाण्डाल ने खरीद कर शमशान में कर का हिसाब रखने हेतु रख दिया। इस महान नीच कर्म से आहत राजा चिंता में डूबे हुए थे कि वहा गौतम ऋषि भ्रमण करते हुए पहुंचे, ऋषि श्रेष्ठ की निकटता पाकर राजा ने विपत्ति से उबरने का उपाय पूछा जिसमें गौतम ऋषि ने उन्हें भाद्रपद मास कृष्ण पक्ष की अजा एकादशी का व्रत करने के लिए कहा। जिसको उन्होंने बड़ी श्रद्धा पूर्वक किया। किन्तु उनके सत्य की एक और कठिन परीक्षा पत्नी व बेटे के प्रति फर्ज की चुनौती के रूप में ली गयी तथा मृत बेटे व विलखती पत्नी का वियोग उन्हें अपने कत्र्तव्य व सत्य से डिगा नहीं सका और एक धर्म पत्नी को खुद अपने ही धर्म पति के सामने अपने ही तन की साड़ी मृत बेटे के कफ़न हेतु फाड़नी पड़ी। ऐसे सत्य रूपी विराट हिमालय को देख सप्त ऋषियों सहित त्रिदेवों का आसन हिल उठा और वह उस सत्य पुरूष पर पुष्प वर्षा करने लगे। अर्थात् अजा एकादशी के पुण्य प्रभाव से उस सत्य व धर्म पुरूष राजा हरिष्चंद्र को सम्पूर्ण राज्य व वैभव सहित पुत्र, पत्नी मिल गए और अंत में बैकुण्ठ धाम की प्राप्ति हुई। देव व ऋषियों की प्रसन्नता राजा हरिष्चंद्र को अजा एकादशी के पुण्य से प्राप्त हुई जिसके व्रत को करने के लिए उन्हें गौतम ऋषि ने कहा था। अर्थात् कठिन परीक्षा व बुरे समय में फंसे व्यक्ति के लिए अजा एकादशी मुक्ति का द्वार है।